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काटेगा, खरीदेगा या किसी से उधार लेगा और काष्ठ (अरणि) से काष्ठ का घर्षण करके अग्निकाय को उज्ज्वलित एवं प्रज्वलित करेगा। और सम्भव है, वह साधु भी गृहस्थ की तरह सर्दी भगाने के लिए अग्नि का आतप लेना चाहेगा तथा उसमें आसक्त होकर वहीं रहना चाहेगा। इसीलिए तीर्थंकर भगवान ने पहले से ही भिक्षु के लिए यह प्रतिज्ञा बताई है कि वह इस प्रकार के उपाश्रय में नहीं ठहरे।
94. While staying with householders another cause of bondage of karmas may be the householder living in that house keeps a lot of wood (fuel) stored for his own use; he will also cut, buy or borrow a variety of fuel for the ascetic as well and produce fire by rubbing pieces of this wood and inflame it by adding fuel. There are chances that the ascetic would use this fire to warm himself just as the householder does and drawn by the warmth he could like to stay there itself. Therefore Tirthankars have framed this code for ascetics that they should neither stay nor do their ascetic activities including meditation in inhabited houses.
९५. से भिक्खू वा २ उच्चार-पासवणेणं उब्बाहिज्जमाणे राओ वा वियाले वा : गाहावइकुलस्स दुवारबाहं अवंगुणेज्जा, तेणो य तस्संधिचारी अणुपविसेज्जा, तस्स भिक्खुस्स णो कप्पइ एवं वइत्तए-अयं तेणो पविसइ वा, ण वा पविसइ, उवल्लियइ वा णो वा उवल्लियइ, आवयइ वा णो वा आवयइ, वयइ वा णो वा वयइ, तेण हडं, . अण्णेण हडं, तस्स हडं, अण्णस्स हडं, अयं तेणे, अयं उवचरए, अयं हंता, अयं : इत्थमकासी। तं तवस्सिं भिक्खुं अतेणं तेणमिति संकइ। अह भिक्खूणं पुव्योवदिट्ठा ४ जाव णो चेइज्जा।
९५. गृहस्थयुक्त मकान में ठहरने पर भिक्षु को रात में या विकाल में मल-मूत्रादि की बाधा होने पर यदि गृहस्थ के घर का द्वार खोला और उसी समय कोई चोर या उसका साथी घर में प्रविष्ट हो गया तो उस समय साधु को मौन रखना पड़ेगा। उसे ऐसा कहना नहीं कल्पता कि यह चोर घर में प्रवेश कर रहा है या प्रवेश नहीं कर रहा है, यह छिप रहा है या नहीं छिप रहा है, नीचे कूद रहा है या नहीं कूद रहा है, बोल रहा है या नहीं बोल रहा है, इसने कुछ चुराया है या किसी दूसरे ने चुराया है, उसका धन चुराया है अथवा दूसरे का धन चुराया है; यही चोर है और यह उसका उपचारक (साथी) है, यह मारने वाला है, इसी ने यहाँ यह कार्य किया है। और यदि भिक्षु कुछ भी नहीं कहता है शय्यैषणा : द्वितीय अध्ययन
( १८३ ) Shaiyyaishana : Second Chapter
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