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९१. गृहस्थों के साथ एक स्थान में निवास करने से अनेक प्रकार के दोष लग सकते हैं। वहाँ जब वह रहेगा तब उन गृहस्थों की पुत्रियाँ, पुत्रवधुएँ, उसकी धायमाताएँ, दासियाँ या नौकरानियाँ आदि जो रहती हैं उनमें कभी परस्पर ऐसा वार्तालाप भी हो सकता है कि “ये जो श्रमण भगवान होते हैं, वे शीलवान्, गुणवान, संयमी, शान्त, ब्रह्मचारी एवं मैथुन धर्म से सदा उपरत होते हैं। अतः इनके लिए मैथुन-सेवन कल्पनीय नहीं है। परन्तु जो कोई स्त्री इनके साथ मैथुन-क्रीड़ा करती है उसको ओजस्वी (विशाल सुदृढ़ शरीर वाला), तेजस्वी (शूरवीर), वर्चस्वी-दीप्तिमान, रूपवान् और यशस्वी तथा संग्राम में पराक्रमी चमक-दमक वाले एवं दर्शनीय पुत्र की प्राप्ति होती है।"
उनकी इस प्रकार की बातें सुनकर उनमें से कोई एक पुत्र-प्राप्ति की इच्छा रखने वाली स्त्री उस तपस्वी भिक्षु को मैथुन-सेवन के लिए प्रेरित कर दे, ऐसा भी सम्भव हो सकता है। इसीलिए तीर्थंकरों ने साधुओं के लिए ऐसी प्रतिज्ञा बताई है कि साधु उस प्रकार के गृहस्थों से युक्त उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि क्रियाएँ करे।। ___ यह शय्यैषणा-विवेक उस भिक्षु या भिक्षुणी के आचार की समग्रता है।
91. Living in the same house with householder families is a source of faults for an ascetic. The daughters, daughters-in-law, governess, female slaves and servants living there may sometimes talk that such ascetics are upright, virtuous, disciplined, composed and celibate. Therefore, sexual activity is prohibited for them. But if a woman can somehow have sex with an ascetic, she is sure to give birth to a brilliant, strong, brave, handsome, illustrious, valorous, scintillating and beautiful son.
Listening to such exchanges it is possible that one of these women, desirous of getting a son, could proceed to seduce the ascetic to have sex with her. Therefore Tirthankars have framed this code for ascetics that they should neither stay nor do their ascetic activities including meditation in inhabited houses. ___This prudence in searching for bed (stay) is the totality (of conduct including that related to knowledge) for that bhikshu or bhikshuni.
विवेचन-सूत्र ८६ से ९१ में जहाँ गृहस्थ परिवार रहते हों उन भवनों में साधु का निवास निषिद्ध बताया है तथा वहाँ निवास करने से उत्पन्न होने वाले खतरों से सावधान किया गया है। शय्यैषणा : द्वितीय अध्ययन
( १७७ ) Shaiyyaishana : Second Chapter
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