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________________ करेगा, प्रज्वलित अग्नि को बुझायेगा । वहाँ ठहरे हुए साधु के मन में कदाचित् ऊँचे-नीचे परिणाम भी आ सकते हैं कि ये गृहस्थ अग्नि को उज्ज्वलित करें अथवा उज्ज्वलित न करें तथा ये अग्नि को प्रज्वलित करें अथवा प्रज्वलित न करें, अग्नि को बुझा दें या न बुझाएँ। इसीलिए तीर्थंकरों ने साधु के लिए ऐसा उपदेश दिया है कि वह उस प्रकार के गृहस्थ-युक्त स्थान में नहीं ठहरे। 89. Living in the same house with householder families is a source of faults for an ascetic. This is because the head of the family will burn and intensify fire for his use and also extinguish the burning fire. The ascetic staying there may have disturbing thoughts that whether or not the householder should burn or intensify a fire or extinguish a burning fire. Therefore Tirthankars have framed this code for ascetics that they should neither stay nor do their ascetic activities including meditation in such inhabited houses. ९०. आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइहिं सद्धिं संवसमाणस्स । इह खलु गाहावइस्स कुंडले वा गुणे वा मणी वा मोत्तिए वा हिरण्णे वा सुवण्णे वा कडगाणि वा तुडियाणि वा तिसरगाणि वा पालंबाणि वा हारे वा अद्धहारे वा एगावली वा मुत्तावली वा कणगावली वा रयणावली वा तरुणियं वा कुमारिं अलंकियविभूसियं पेहाए अह भिक्खू उच्चावयं मणं नियंच्छिज्जा एरिसिया, वाऽऽसी णा वा, एरिसिया इया वा णं बूया, इति वा णं मणं साइज्जा। अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा ४ जं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा ३ चेइज्जा । ९०. गृहस्थों के साथ एक मकान में ठहरना साधु के लिए कर्मबन्ध का कारण कहा है | जो भिक्षु गृहस्थ के साथ ठहरता है उसमें निम्नलिखित कारणों से राग-द्वेष की उत्पत्ति होना सम्भव है जैसे कि उस मकान में गृहस्थ के कुण्डल, करघनी, मणि, मुक्ता, चाँदी, सोना या सोने के कड़े, बाजूबंद, तीन लड़ाहार, फूलमाला, अठारह लड़ी का हार, नौ लड़ी का हार, एकावली हार, मुक्तावली हार या कनकावली हार, रत्नावली हार अथवा वस्त्राभूषण आदि से अलंकृत और विभूषित युवती या तरुण कुमारी कन्या को देखकर भिक्षु अपने मन में ऊँच-नीच संकल्प-विकल्प कर सकता है कि ये इस प्रकार के आभूषण आदि मेरे घर में भी थे एवं मेरी स्त्री या कन्या भी इसी प्रकार की थी या ऐसी नहीं थी । वह इस प्रकार के वचन भी कह सकता है अथवा मन ही मन उनकी कामना / अनुमोदना शय्यैषणा: द्वितीय अध्ययन ( १७५ ) Shaiyyaishana: Second Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
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