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________________ र (घ) से णं परिभाएमाणं परो वइज्जा-आउसंतो समणा ! मा णं तुमं परिभाएहि, सव्वे वेगइया भोक्खामो वा पाहामो वा । से तत्थ भुंजमाणे णो अप्पणा खद्धं खद्धं जाव लुक्खं। से तत्थ अमुच्छिए ४ बहुसममेव भुंजेज्ज वा पाएज्ज वा। (ङ) से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा, समणं वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा अतिहिं वा पुव्वपविट्ठ पेहाए णो ते उवाइक्कम्म पविसेज्ज वा ओभासिज्ज वा। से त्तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, २ (त्ता) अणावायमसंलोए चिट्ठज्जा। अह पुणेवं जाणेज्जा पडिसेहिए व दिण्णे वा, तओ तम्मि णिवट्टिए संजयामेव पविसेज्ज वा ओभासेज्ज वा।। एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं। ॥ पंचमो उद्देसओ सम्मत्तो ॥ ___३०. (क) वह भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करते समय यदि यह जाने कि उसके जाने से पहले ही बहुत-से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, याचक (ग्राम-पिण्डोलक), दरिद्र और अतिथि आदि उस गृहस्थ के यहाँ प्रवेश कर चुके हैं, तो उन्हें देखकर उनके सामने या जिस द्वार से वे निकलते हैं, उस द्वार पर खड़ा न रहे। किन्तु वह एकान्त स्थान में चला जाए, वहाँ जाकर कोई आता-जाता न हो और देखता न हो, इस प्रकार से खड़ा हो जाये। उस भिक्षु को उस एकान्त स्थान में खड़ा देखकर वह गृहस्थ अशनादि आहार लाकर दे और देता हुआ वह यों कहे-“आयुष्मन् श्रमण ! यह अशनादि चतुर्विध आहार मैं आप सब (निर्ग्रन्थ-शाक्यादि श्रमण आदि उपस्थित) जनों के लिए दे रहा हूँ। आप अपनी रुचि के अनुसार इस आहार का उपभोग करें और परस्पर बाँट लें।" (ख) इस पर यदि वह साधु उस आहार को चुपचाप लेकर यह विचार करता है कि "यह आहार (गृहस्थ ने) मुझे दिया है, इसलिए मेरे ही लिए है"; तो वह माया-स्थान (कपट) का सेवन करता है। अतः उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। (ग) वह साधु उस आहार को लेकर वहाँ (उन शाक्यादि श्रमण आदि के पास) जाए और वहाँ जाकर सर्वप्रथम उन्हें वह आहार दिखाए; और यह कहे-“हे आयुष्मन् श्रमणादि ! यह अशनादि चतुर्विध आहार गृहस्थ (दाता) ने हम सब के लिए दिया है। अतः आप सब इसका उपभोग करें और परस्पर बाँट लें।" ऐसा कहने पर यदि कोई a शाक्यादि भिक्षु उस साधु से कहे कि “आयुष्मन् श्रमण ! आप ही इसे हम सब को बाँट पिण्डैषणा : प्रथम अध्ययन (६९ ) Pindesana : Frist Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
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