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रखना।
'हंतव्वा' - हनन करना या मारना ।
'अज्जावेयव्वा' - बलात् काम लेना, जबरन आदेश का पालन कराना ।
'परिघेत्तव्वा' - बंधक या गुलाम बनाकर अपने कब्जे में रखना । दास-दासी आदि रूप में
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'परितावेयव्वा' - परिताप देना, सताना, हैरान करना, व्यथित करना ।
' उद्दवेयव्वा' - उपद्रव करना या सत्त्वविहीन करना । अहिंसा धर्म के चार विशेष लक्षण यहाँ बताये हैंसुद्धे-शुद्ध-राग-द्वेष हिंसा से रहित । निइए-नित्य-जिसका स्वरूप सदा एक समान है। सासए - शाश्वत - जो तीनों काल में विद्यमान है।
खेय-क्षेत्रज्ञ प्रवेदित-आत्मा को जानने वाले पुरुषों द्वारा कहा गया है। उत्थित आदि दश विशेषणों का विशेष अर्थ इस प्रकार है
१. उत्थित-धर्म के प्रति प्रयत्नशील ।
२. अनुत्थित-धर्म के प्रति उदासीन ।
३. उपस्थित-धर्म सुनने व ग्रहण करने को इच्छुक ।
४. अनुपस्थित-धर्म सुनने व ग्रहण करने में इच्छुक नहीं ।
५. उपरत दंड - हिंसा के त्यागी ।
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६. अनुपरत दंड - हिंसा से विरत नहीं ।
७. सोपधिक - परिग्रह सहित ।
८. अनुपधिक - परिग्रह का त्यागी ।
९. संयोगरत - पुत्र - स्त्री आदि संयोग सम्बन्धों से युक्त |
१०. असंयोगरत - पुत्रादि के सम्बन्धों से मुक्त |
Elaboration - Se bemi......—this statement pronounces the universality of the Ahimsa-dharma (truth about ahimsa or the way of life based on ahimsa) as known, experienced and propagated by Bhagavan Mahavir and the Tirthankars of past, present and future
आचारांग सूत्र
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Illustrated Acharanga Sutra
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