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UNIVERSALITY OF AHIMSA
133. I so pronounce - All the omniscients of all times (who have existed in the past, who exist in the present and who will exist in the future) state, speak, propagate, and elaborate that nothing which breathes, which exists, which lives, and which has any essence or potential of life, should be destroyed or ruled over, or subjugated, or harmed, or deprived of its essence or potential.
This dharma or truth (ahimsa) is pure, undefileable, and eternal. It has been propagated by self knowing omniscients, after understanding all there is to know in the universe.
The Arhats (omniscients) have propagated this dharma for all those who have risen or not, who are present or not, who avoid violence or do not, who have possessions or not, and who have affiliations or not.
विवेचन - ' से बेमि.' इन पदों द्वारा तीर्थंकर भगवान महावीर द्वारा जाना हुआ, अतीतअनागत-वर्तमान तीर्थंकर द्वारा कहा हुआ, अनुभव किया हुआ, केवलज्ञान द्वारा देखा हुआ जो अहिंसा धर्म है, उसकी सार्वभौमिकता की घोषणा की गई है। अतीत के तीर्थंकर अनन्त हैं, क्योंकि काल अनादि होता है। भविष्य के भी अनन्त हैं, क्योंकि आगामी काल भी अनन्त है, वर्तमान में कम से कम (जघन्य) २० तीर्थंकर हैं जो पाँच महाविदेहों में से प्रत्येक में चार-चार के हिसाब से विद्यमान हैं। अधिक से अधिक (उत्कृष्ट ) १७० तीर्थंकर हो सकते हैं, जैसे - महाविदेह क्षेत्र ५ हैं, उनमें प्रत्येक में ३२- ३२ तीर्थंकर होते हैं, अतः ३२ × ५ १६० तीर्थंकर हुए। ५ भरत क्षेत्रों में पाँच, और ५ ऐरावत क्षेत्रों में पाँच-यों कुल मिलाकर एक साथ १७० तीर्थंकर हो सकते हैं।
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आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना और प्ररूपणा शब्दों के अर्थ में थोड़ा-थोड़ा अन्तर है। दूसरों के द्वारा प्रश्न किये जाने पर उसका उत्तर देना आख्यान है । देव - मनुष्यादि की परिषद् में बोलना 'भाषण' कहलाता है। शिष्यों की शंका का समाधान करने के लिए कहना 'प्रज्ञापना' है। तात्त्विक दृष्टि से किसी तत्त्व या पदार्थ का निरूपण करना ' प्ररूपणा ' है ( आचा. टीका, पत्रांक १६२)
। प्राण, भूत, जीव और सत्व ये शब्द वैसे तो एकार्थक माने गए हैं, जैसे कि आचार्य जिनदास कहते हैं - ' एगडिता वा एते'; किन्तु इन शब्दों के कुछ विशेष अर्थ भी किये गये हैं । प्रथम अध्ययन के सूत्र ४९ में इनका विवेचन किया जा चुका है।
'हंतव्वा' से लेकर ' उद्दवेयव्वा' तक हिंसा के ही पाँच प्रकार बताये गये हैं। इनका पृथक्-पृथक् अर्थ इस प्रकार है
सम्यक्त्व : चतुर्थ अध्ययन
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Samyaktva: Forth Chapter
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