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बीओ उद्देसओ
द्वितीय उद्देशक
LESSON TWO
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अरति एवं लोभ का त्याग
७०. अरइं आउट्टे से मेहावी खणंसि मुक्के। ७१. अणाणाए पुट्ठा वि एगे णियटृति मंदा मोहेण पाउडा। ‘अपरिग्गहा भविस्सामो' समुट्ठाए लद्धे कामे अभिगाहइ। अणाणाए मुणिणो पडिलेहति।
एत्थ मोहे पुणो पुणो सण्णा णो हव्वाए णो पाराए।
७०. जो अरति से दूर हो जाता है, वह बुद्धिमान है। वह (विषय-तृष्णा से) शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।
७१. अनाज्ञा में (जिन आज्ञा के विपरीत आचरण करने वाले) कोई-कोई (कामनाओं के वश होकर अथवा संयम जीवन में परीषह आने पर) वापस गृहवासी भी बन जाते हैं। उनकी बुद्धि-मोह से आच्छादित रहती है।
(कुछ पुरुष) "हम अपरिग्रही होंगे।" ऐसा संकल्प करके संयम धारण करते हैं, किन्तु जब इन्द्रिय-विषयों के आकर्षण का अवसर उपस्थित होता है, तो उनमें फँस जाते हैं। वे मुनि वीतराग-आज्ञा से बाहर (विषयों की ओर) देखने लगते हैं।
वे (विषयों की आसक्ति रूप) मोह में बार-बार निमग्न होते जाते हैं। (इस दशा में वे) न तो इस तीर हव्व (गृहवास) पर आ सकते हैं और न उस पार (श्रमणत्व) तक जा सकते हैं। ABANDONING INDISCIPLINE AND GREED
70. One who gets away from indiscipline is wise. He soon becomes free (of mundane cravings).
71. Under wrong influence (having conduct contrary to the tenets of the Jina) some (driven by their desires or when they face afflictions during the ascetic life) return to become householders. Their wisdom remains obscured by fondness or attachment.
(Some) accept ascetic discipline by resolving—“We shall remain free of attachments.” But on the first opportunity of आचारांग सूत्र
Illustrated Acharanga Sutra
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