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जे तत्थ परियावज्जंति ते तत्थ उद्दायंति। एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति। एत्य सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति।
६२. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं वाउसत्थं समारंभेज्जा, णेवऽण्णेहिं वाउसत्थं समारंभावेज्जा, णेवऽण्णे वाउसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा।
जस्सेते वाउसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिणायकम्मे। त्ति बेमि।
६१. मैं कहता हूँ-(जो) संपातिम-उड़ने वाले प्राणी होते हैं, वे वायु से प्रताड़ित होकर नीचे गिर जाते हैं।
कुछ प्राणी वायु का स्पर्श/आघात होने से सिकुड़ जाते हैं। जब वे वायु-स्पर्श से सिकुड़ जाते हैं, तब वे मूर्छित हो जाते हैं।
जब वे जीव मूर्छा को प्राप्त होते हैं तो वहाँ मर भी जाते हैं।
जो यहाँ वायुकायिक जीवों की हिंसा करता है, वह इन तत्सम्बन्धी हिंसा की प्रवृत्तियों में अलिप्त नहीं रह सकता। __ जो वायुकायिक जीवों की हिंसा नहीं करता, वास्तव में उसने आरम्भ को जानकर त्याग दिया है।
६२. यह जानकर बुद्धिमान् मनुष्य स्वयं वायुकाय का समारंभ नहीं करे। दूसरों से वायुकाय का समारंभ न करवाए, वायुकाय का समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे।
जिसने वायुकाय-सम्बन्धी शस्त्र-समारंभ को जान लिया है, वही मुनि परिज्ञातकर्मा है। -ऐसा मैं कहता हूँ। 61. I say—The beings which fly fall down when hurt by air.
Some beings shrivel when they come in contact with air. When they shrivel they also lose their sense.
When they lose their sense they sometimes die.
He who uses weapons on air-bodied beings is not free of these sins (the blemish of harming and killing living beings). शस्त्र परिज्ञा : प्रथम अध्ययन
(७५ ) Shastra Parijna : Frist Chapter
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