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३ परिणामि - नित्यता अर्थात् उत्पाद्, व्यय, धौन्यरूपसे त्रिरूप वस्तु मान कर तदनुसार धर्मधर्मीका विवेचन इत्यादि ।
इसी विचारसमता के कारण श्रीमान् हरिभद्र जैसे जैनाचार्योंने महर्षि पतञ्जलिके प्रति अपना हार्दिक आदर प्रकट करके अपने योगविषयक ग्रन्थोंमें गुणग्राहकताका निर्भीक
है, उसका वर्णन योगसूत्र ( ४-४ ) में है, यही विषय वैक्रिय - आहारक - लब्धिरूप से जैनग्रन्थों में वर्णित है ।
१ जैनशास्त्रमें वस्तुको द्रव्यपर्यायस्वरूप माना है । इसीलिये उसका लक्षण तत्वार्थ ( श्र० ५ - २६ ) में " उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् " ऐसा किया है । योगसूत्र ( ३- १३, १४ ) में जो धर्मधर्मीका विचार है वह उक्त द्रव्यपर्यायउभयरूपता किंवा उत्पाद, व्यय, धौव्य इस त्रिरूपताका ही चित्रण है । भिन्नता सिर्फ दोनों में इतनी ही है कि- योगसूत्र सांख्यसिद्धान्तानुसारी होनेसे " ऋते चितिशक्तेः परिणामिनो भावाः " यह सिद्धान्त मानकर परिणामवादका अर्थात् धर्मलक्षणावस्थापरिणामका उपयोग सिर्फ जडभागमें अर्थात् प्रकृतिमें करता है, चेतनमें नहीं | और जैनदर्शन तो "सर्वे भावाः परिणामिनः " ऐसा सिद्धान्त मानकर परिणामवाद अर्थात् उत्पादव्ययरूप पर्याय का उपयोग जड चेतन दोनोंमें करता है । इतनी भिन्नता होनेपर भी परिणामवादकी प्रक्रिया दोनोंमें एक सी है ।
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