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[ ३२ ] योगकी आठ दृष्टियोंका जो वर्णन ' है, वह सारे योगसाहित्य में एक नवीन दिशा है ।
श्रीमान् हरिभद्रसूरिके योगविषयक ग्रन्थ उनकी योगाभिरुचि और योगविषयक व्यापक बुद्धिके खासे नमूने हैं ।
इसके बाद श्रीमान् हेमचन्द्रसूरिकृत योगशास्त्रका नंबर श्राता है । उसमें पातञ्जल योगशास्त्र - निर्दिष्ट आठ योगांगोंके क्रमसे साधु और गृहस्थ जीवनकी आचार - प्रक्रियाका जैन शैली अनुसार वर्णन है, जिसमें आसन तथा प्राणायामसे संबन्ध रखनेवाली अनेक बातोंका विस्तृत स्वरूप है; जिसको देखने से यह जान पडता है कि तत्कालीन लोगों में हठयोग - प्रक्रियाका कितना अधिक प्रचार था । हेमचन्द्राचार्यने अपने योगशास्त्रमें हरिभद्रसूरि के योगविषयक ग्रन्थोंकी नवीन परिभाषा और रोचक शैलीका कहीं भी उल्लेख नहीं किया है, पर शुभचन्द्राचार्य के ज्ञानार्णवगत पदस्थ, पिण्डस्थ,
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१ मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा । नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ॥ १३ ॥
इन आठ दृष्टियों का स्वरूप, दृष्टान्त आदि विषय, योगजिज्ञासुओंके लिये देखने योग्य है । इसी विषयपर यशोविजयजीने २१, २२, २३, २४ ये चार दात्रिंशिकायें लिखी हैं । साथ ही उन्होंने संस्कृत न जाननेवालों के हितार्थ आठ दृष्टियोंकी सज्झाय भी गुजराती भाषामें बनाई है ।
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