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आगम और निर्युक्तिकी अपेक्षा कोई अधिक बात नहीं है । जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणका ध्यानशतक आगमादि उक्त ग्रन्थोंमे वर्णित ध्यानका स्पष्टीकरण मात्र है, यहां तकके योगविषयक जैन विचारोंमें आगमोक्त वर्णनकी शैली ही प्रधान रही है । पर इंस शैलीको श्रीमान् हरिभद्रसूरिने एकदम बदलकर तत्कालीन परिस्थिति व लोकरुचिके अनुसार नवीन परिभाषा दे कर और वर्णनशैली अपूर्वसी बनाकर जैन योग - साहित्य में नया युग उपस्थित किया । इसके सबूतमें उनके बनाये हुए योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविंशिका, योगशतर्क और पोडशक ये ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । इन ग्रन्थोंमें उन्होंने सिर्फ जैन-मार्गानुसार योगका वर्णन करके ही संतोष नहीं माना है, किन्तु पातञ्जलयोगसूत्र में वर्णित योगप्रक्रिया और उसकी खास परिभाषाओं के साथ जैन संकेतों का मिलान भी किया है । योगदृष्टिसमुच्चयमें
१ देखो हारिभद्रीय आवश्यक वृत्ति प्रतिक्रमणाध्ययन पृ० ५८१ २ यह ग्रन्थ जैन ग्रन्थावलि में उल्लिखित है पृ० ११३ । ३ समाधिरेष एवान्यैः संप्रज्ञातोऽभिधीयते । सम्यकप्रकर्षरूपेण वृत्त्यर्थज्ञानतस्तथा ॥ ४९८ ॥ असंप्रज्ञात एषोऽपि समाधिर्गीयते परैः । निरुद्धाशेषवृत्त्यादितत्स्वरूपानुवेधतः || ४२० ॥ इत्यादि.
योगबिन्दु ।