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[१३७ ] कार है-क्षपकात्मारूप धनुर्धर, क्षपकश्रेणीरूप धनुपके ऊपर अनासम्बनयोगरूप वाणको परमात्मतत्वरूप लक्ष्यके सम्मुख इस तरह चढाता है कि वाण छूटनेरूप अनालम्बन ध्यानकी समाप्ति । जिसको शास्त्र में ध्यानान्तरीका कहते हैं ) होते ही लक्ष्यवेधरूप परमात्मतत्त्वका प्रकाश होता है, यही केवलज्ञान है जो अनालम्बन ध्यानका फल है। आत्मतत्त्वके साक्षात्कारके पूर्वमें जबतक उसकी प्रबल आकाङ्क्षा थी तबतकका विशिष्ट प्रयत्न निरालम्बन ध्यान है, परन्तु केवलज्ञान होनेपर आत्मतत्त्वके साक्षात्कारकी इच्छा न रहनेसे अनालम्बन ध्यान नहीं है तो भी आत्मतत्चविषयक केवलज्ञानरूप प्रकाशको सालम्बन योग कह सकते हैं । यहाँ यह जानना चाहिए कि केवलिअवस्था प्राप्त होने के बाद जबतक योग निरोधके लिए प्रयत्न नहीं किया जाता तबतककी स्थितिको एक प्रकारकीविश्रान्ति मात्र कह सकते हैं, ध्यान नहीं; क्योंकि ध्यान विशिष्ट प्रयत्नका नाम है जो केवलज्ञानके पहले या योगनिरोध करते समय होता है ।। ___ उक्त रीतिसे सालम्बन, निरालम्बन ध्यानका वर्णन करके अव निरालम्बन ध्यानसे होनेवाले फलोंको क्रमसे दिखाते हैं
गाथा २०-इस निरालम्बन ध्यानके सिद्ध हो जाने पर मोहसागर पार हो जाता है यही क्षपकश्रेणीकी सिद्धि