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________________ [१२६] मित्त है, इससे उस घटनाका दोपभागी मारनेवाला अवश्य है। .. इसी तरह जो लोग स्वयं अविधिसे धर्मक्रिया कर रहे हैं उनका दोष धर्मोपदेशकपर नहीं है, पर जो लोग प्रविधिमय धर्मक्रिमाका उपदेश सुन कर उन्मार्गपर चलते हैं उनकी जवाबदेही . उपदेशकपर अवश्य है। धर्मके जिज्ञासु लोगोंको अपनी क्षुद्र खार्थवृत्ति के लिए उन्मार्गका उपदेश करना वैसा ही विश्वासघात है जैसा शरणमें आये हुएका सिर काटना । जैसा चल रहा है ऐसा चलने दो यह दलील भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसी उपेक्षा रखनेसे शुद्ध धर्मक्रियाका लोप हो जाता है जो वास्तवमें तीर्थोच्छेद है । विधिमार्गके लिए निरन्तर प्रयत्न करते रहनेसे कभी किसी एक व्यक्तिको भी शुद्ध धर्म प्राप्त हो जाय तो उसको चौदह लोकमें अमारीपटह बजवानेकीसी धर्मोन्नति हुई समझना चाहिए अर्थात् विधि पूर्वक धक्रिया करनेवाला एक भी व्यक्ति प्रविधि पूर्वक धर्म. क्रिया करनेवाले हजारों लोगोंसे अच्छा है। अतएव जो परोपकारी धर्मगुरु हों उन्हें ऐसी दुर्बलताका आश्रय कभी 'न लेना चाहिये कि इसमें हम क्या करें ? हम तो सिर्फ धर्मक्रियाका उपदेश करते हैं, प्रविधिका नहीं। धर्मोपदेशक मुरुओंको यह बात कभी न भूलनी चाहिए कि विधिका उपदेश भी उन्हींको देना चाहिये जो उसके श्रवणके लिये रसिक हों। अयोग्य पात्रको ज्ञान देनेमें भी महान् अनर्थ
SR No.007442
Book TitleYogdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlal Sanghavi
Publication Year
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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