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________________ [ १२८] भय दिखा कर बिगड कर बोल उठते हैं कि "जैसा चल रहा है वैसा चलने दो, वैसा चलते रहनेसे भी तीर्थ (धर्म) टिक सकेगा । बहुत विधि (शास्त्र अनुकूलता) का ध्यान रखनेमें शुद्ध किया तो दुर्लभ ही है, अशुद्ध क्रिया भी जो चलं रही है वह छूट जायगी और अनादिकालीन अक्रियाशीलता (प्रमादवृत्ति ) स्वयं लोगोंपर आक्रमण करेगी जिससे तीर्थका नाश होगा।" इसके सिवाय वे अपने प्रविधिमार्गके उपदेशका बचाव यह कह कर भी करते हैं कि "जैसे धर्मक्रिया नहीं करनेवालेके लिए हम उपदेशक दोष भागी नहीं हैं वैसे ही अविधिसे क्रिया करनेवालेके लिए भी हम दोषभागी नहीं । हम तो क्रियामात्रका उपदेश देते हैं जिससे कमसे कम व्यावहारिक धर्म तो चालु रहता है और इस तरह हमारे उपदेशसे धर्मका नाश होनेके बदले धर्मकी रक्षा ही हो जाती है।" ऐसा पोचा बचाव करनेवाले उन्मार्ग-गामी उपदेशक गुरुओंसे ग्रंथकार कहते हैं कि एक व्यक्तिकी मृत्यु स्वयं हुई हो और दूसरी व्यक्तिको मृत्युःकिसी अन्यके द्वारा हुई हो इन दोनों घटनाओंमें वडा अन्तर है। पहली घटनाका कारण मरनेवाले व्यक्तिका कर्म मात्र है, इससे उसकी मृत्युके लिए दूसरा कोई दोषी नहीं है । परन्तु दूसरी घटनामें मरनेवाले व्यक्तिके कर्मके उपरान्त मारनेवालेका दुष्ट प्राशय भी नि
SR No.007442
Book TitleYogdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlal Sanghavi
Publication Year
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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