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ही जैनशास्त्र भी अत्यन्त दुष्कर ऐसे वाह्य तप करनेकी सम्मति वहांतक ही देता है, जहांतक कि श्राभ्यन्तर तप अर्थात् कषायमन्दताकी वृद्धि हो, और ध्यानकी पुष्टि हो ।
जैनशास्त्र के अनुसार ईश्वरप्रणिधानका मतलब यह है कि प्रत्येक अनुष्ठान करते समय शास्त्रको दृष्टिसम्मुख रख करके तद्द्वारा उसके आदि उपदेशक वीतराग प्रभुको हृदयमें स्थान देना |
सूत्र ४ - अस्मिता श्रादि चारों क्लेशोंकी जड विद्या है,.. और चारों क्लेश प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार इस प्रकारकी चार चार अवस्थावाले हैं । इस विषयका समन्वय जैनपरि - भाषामें इस प्रकार है- अविद्यादि पाँचों क्रेश मोहनीयकर्मके श्रदयिकभाव - विशेषरूप हैं । अबाधाकाल पूर्ण न होनेके कारण जबतक कर्मदलिकका निपेक ( रचनाविशेष ) न हो. aaaaat कर्मावस्थाको प्रसुप्तावस्था समझना चाहिये । कर्मका उपशम और क्षयोपशम भाव उसकी तनुत्व अवस्था
| अपनी विरोधी प्रकृतिके उदयादि कारणोंसे किसी कर्मप्रकृतिका उदय रुक जाना वह उसकी विच्छिन्न अवस्थां है । उदयावलिकाको प्राप्त होना कर्मकी उदार अवस्था है ।
सूत्र ६ - सूत्रकारने सूत्र ५ से ६ तकमें पाँच क्लेशोंके लक्षण कहे हुए हैं उनका जैनप्रक्रियाके अनुसार समन्वय इस प्रकार है-