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[6] इन भावनाओंको मोहकी उपशम दशामें अर्थात् उपशमश्रेणिमें सम्प्रज्ञात समाधिकी तरह सबीज और मोहकी क्षीण अवस्थामें अर्थात् क्षपकौणिमें असम्प्रज्ञात समाधिकी तरह निजि घटा लेना चाहिये।
सूत्र ४8-जैनप्रक्रियाके अनुसार ऋतंभराप्रज्ञाका समन्वय इस प्रकार है-जो समाधिप्रज्ञा दूसरे अपूर्वकरण अर्थात् आठवें गुणस्थानमें होनेवाले सामर्थ्ययोगके बलसे प्रकट होती है, और जो शास्त्रके द्वारा प्रतिपादन नहीं किये जा सकनेवाले अतीन्द्रिय विषयोंको अवगाहन करती है, अतएव जो प्रज्ञा न तो केवलज्ञानरूप है और न श्रुतज्ञानरूप; किन्तु जैसे रातके खतम होते समय और सूर्योदयके पहले अरुणोदयरूप संध्या रात और दिन दोनोंसे अलग पर दोनोंकी माध्यमिक स्थितिरूप है, वैसे ही जो प्रज्ञा श्रुतज्ञानके अंतमें और केवलज्ञानके पहले प्रकट होनेके कारण दोनोंकी मध्यम दशा रूप है, जिसका दूसरा नाम अनुभव है, उसीको ऋतम्भराप्रज्ञा समझना चाहिये ।
द्वितीय पाद। सूत्र १-जैसे भाष्यमें चित्तकी प्रसन्नताको बाधित नहीं करनेवाला ही तप योगमार्गमें उपयोगी कहा गया है, वैसे