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[३] लिये उनका समावेश प्रमाण और विपर्यय (अप्रमाण ) इन दो वृत्तियों में ही हो जाता है । अतएव वृत्तिके दो ही विभाग करने चाहिये । यदि किसी न किसी विशेषताको लेकर अधिक विभाग करना हो तो फिर पाँच ही क्यों ? क्षयोपशम(योग्यता) की विविधताके कारण असंख्यात विभाग किये ना सकते हैं।
विषयके न होते हुए भी जो बोध सिर्फ शब्दज्ञानके बलसे होता है वह विकल्प है । जैसे 'आकाशपुष्प' ऐसा कहनेसे एक प्रकारका भास हो ही जाता है। इसी तरह 'चैतन्य यह आत्माका स्वरूप है ' ऐसा सुननेसे भी भास होता है। यह दोनों प्रकारका भास विकल्प है। पहले प्रकारका विकल्प विपर्यय-कोटिमें सम्मिलित करना चाहिये, क्योंकि 'आकाशपुष्प ' यह व्यवहार प्रामाणिक-सम्मत नहीं है। दूसरे प्रकारका विकल्प जिसमें भेदबोधक षष्ठीविभक्तिके बलसे
आत्मा और चैतन्यका भेद भासित होता है वह नय अर्थात् प्रमाणांशरूप है। क्योंकि ऐसे विकल्पका व्यवहार शास्त्रीय व प्रामाणिक-सम्मत है । प्रमाणांश कहनेका मतलब यह है कि व्यवहाकी दृष्टि कभी भेदप्रधान और कभी अभेद-. प्रधान होती है । दोनों दृष्टियोंको मिलानेसे ही प्रमाण होता है । दृष्टिको अपेक्षा या नय कहते हैं। वस्तुतः आत्मा चैतन्यस्वरूप है, पर उसके अनेक स्वरूपों से जब चैतन्यस्व