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[१२]] करनेमें संप्रज्ञात योगका तो संग्रह हो जाता है पर विक्षिप्त अवस्था जो सूत्रकारको योगरूपसे इष्ट नहीं है और जिसमें कितनीक चित्तवृत्तियोंका निरोध अवश्य पाया जाता है उसमें अतिव्याप्ति होगी । यदि उक्त अतिव्याप्तिके निरासके लिये अध्याहार किया जाय तो सम्प्रज्ञातमें अव्याप्ति होगी, क्योंकि उसमें सव चित्तवृत्तियाँ नहीं रुक जाती। इस तरह 'सर्व'. शब्दका अध्याहार करने में या न करनेमें दोनों तरफ रज्जुपाशा होनेसे 'क्लिष्ट' पदका अध्याहार करके " योगः क्लिष्टचित्तवृत्तिनिरोधः" इतना लक्षण फलित करना चाहिए, जिससे न तो विक्षिप्त अवस्थामें अतिव्याप्ति होगी और न सम्प्रज्ञातमें अव्याप्ति । यह तो हुई सूत्रको ही संगत करनेकी बात, पर श्रीहरिभद्र जैसे प्राचार्यकी सम्मति बतलाकर उपाध्यायजी जैन शैलीके अनुसार योगका लक्षण इस प्रकार करते हैं-"जो धर्मव्यापार-अर्थात. स्वभावोन्मुख या चेतनाभिमुख क्रिया-समितिगुप्ति स्वरूप है वहीं योग है, क्योंकि उसीसे मोचलाभ होता है।"
सत्र ११ -पाद १ सत्र ६ से ११ तकमें निरोध करने योग्य पाँच वृत्तियोंका निरूपण है । इसपर उपाध्यायजीका कहना यह है कि-सूत्रकारने वृत्तियोंके जो पाँच भेद किये हैं सो तात्त्विक नहीं किन्तु उनकी रुचिका परिणाममात्र है । क्यों कि विकल्प, निद्रा और स्मृति ये पीछली तीनों वृत्तियाँ यथार्थ तथा अयथार्थ उभयरूपं देखी जाती हैं, इस