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________________ (१४) वर्णनके आधारसे की गई है। फिर भी कई जगह त्रुटित पाठकी पूर्ति नहीं हो सकी । जहाँ कल्पनाद्वारा पूर्ति की गई है वहाँ कोष्ठक आदि खास चिह्न किये हैं या नीचे फुट नोटमें सूचना की है। ___ योगविशिकाके सम्बन्धमें भी वही बात है क्योंकि उसकी 'टीकाकी भी एक ही नकल मिल सकी। उस एक नकलको खोज नीकालनेका श्रेय प्रवर्तकजीके ही स्वर्गवासी शिष्य मुनि श्री भक्तिविजयजीको ही है । वह एक नकल कालके गालमें जा ही रही थी कि सौभाग्यवश उक्त मुनिजीको मिल गई। प्रसंग ऐसा हुआ कि अमदावादमें किसी श्रावकके वहाँ कचरेके रूपमें "पुराने पन्ने पडे थे, जिनको उक्त मुनिजीने देखा और उनसे उनको उपाध्यायजी कृत योगविशिका टीकाकी एक अखंड नकल मिली जो उनके स्वहस्तलिखित ही है । यद्यपि उपाध्यायजीने श्री हरिभद्रकृत वीसों विशिकाओंके ऊपर टीका लिखी है जैसा कि योगविंशिकाटीकाके इस अन्तिम उल्लेखसे स्पष्ट है इति महोपाध्यायश्रीकल्याणविजयगणिशिष्यमुख्यपण्डितश्रीजीतविजयगणिसतीर्थ्यपण्डितश्रीनयविजयगणिचरणकमलचञ्चरीकपण्डितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरोपाध्यायश्रीजसविजयगाणिसमाथितायां विशिकाप्रकरणव्याख्यायां योगविंशिकाविवरणं सम्पूर्णम् ॥ तथापि प्रस्तुत एक विशिकाको टोकाके सिवाय शेष. उन्नीस विंशिकाओंकी टीकाएँ आज अनुपलब्ध हैं । न जाने वे नाशका ग्रास हो गई, या कहीं अज्ञात रूपसे उक्त एक टीकाकी -तरह कुडे कचरेके रूपमें किसी संग्रह लोलुपके द्वारा रक्षित
SR No.007442
Book TitleYogdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlal Sanghavi
Publication Year
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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