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पुस्तकको सच मुच्च मेरे परम श्रद्धास्पद उन सहायकोंकी सहायताका ही परिणाम समझें, मैं तो इसमें स्वल्प निमित्त मात्र रहा हूँ। वे सहायक है प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजीके शिष्य मुनि श्री चतुरविजयजी और उनके शिष्य लघुवयस्क मुनि श्री पुण्यविजयजी । हस्तलिखित प्रतीयोंको संपादित कर उन परसे प्रेस कापी करना, गुफ देखना तथा हिंदीसारका संशोधन करके उसके मुफोको देखना आदि सब बौद्धिक तथा शारी.. रिक काम उक्त लघुवयस्क मुनिने ही प्रधानतया किये हैं। उनके गुरु श्री चतुरविजयजी महाराजने उक्त काममें सहायता देनेके अलावा प्रेस, छपाई तथा अर्थसे संबंध रखनेवाली अनेक उलझनोंको सुलझाया है। निःसन्देह उक्त दोनों गुरु शिष्यको सहृदयता, उत्साह शीलता और कुशलता सिर्फ मेरे ही नहीं बल्कि सभी साहित्यप्रेमीके धन्यवादके पात्र है। संक्षेपमें निष्पक्षभावसे इतना ही कहूँगा कि हीयमान साधुभावका विरलरूपसे आज जिन इनि गिनि व्यक्तियोंमें दर्शन होता है उनमें प्रवर्तकजीकी गणना निःसंकोच भावसे की जानी चाहिए। प्रवर्तकजीके ही गुण उक्त दोनों गुरु शिष्योंमें, खासकर उक्त लघुवयस्क मुनिमें उतर आये है यह वात उनके परिचयमें आनेवाला कोई भी स्वीकार किये बिना न रहेगा।
योगसूत्रवृत्तिकी एक ही लिखित प्रति न्यायांभोनिधि आत्मारामजी महाराजके भाण्डारसे मिल सकी थी जिसके उपरसे प्रेस कापी तैयार की गई । उस प्रतिमें यत्र तत्र कई जगह अक्षर, पद या वाक्य तक खंडित हो गये थे। दूसरी प्रतिके अभावमें उस खंडित भागकी पूर्ति बहुधा अर्थानुसंधानजनित कल्पनासे किंवा उपाध्यायजीके ही रचित शास्त्रवार्तासमुच्चयटीका आदि अन्य ग्रन्थों में पाये जानेवाले समान विषयक