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तेरापंथ - मत- समीक्षा |
'साधु - मुनिराज किसी त्रस - स्थावर जीवको हणे नहीं, हणावे नहीं और अन्य कोई हणे उसकी अनुमोदना करे नहीं । किसीने किसी जीव को बांधा हो, तो साधु छोडे नहीं छोडावे नहीं, और छोडे उसको अच्छा जाने नहीं । यह साधुका आचार है । इसी तरह श्रावक भी तीर्थंकरके छोटे पुत्र हैं, इस लिये वे भी कोई कीसी जीवको मारता हो तो, उस जीवको छोडे नहीं छोडावे नहीं और छोडे उसकी अनुमोदना करे नहीं । इसमें कारण यह दिखलाया कि यदि कोई शख्स, किसी जीवको मारता हो, और उसको छुडाया जाय, तो प्रथम तो अंतराय दोष लगेगा । तथा छुडाने के बाद वह जीव हिंसा करेगा, मैथुन सेवेगा, पत्र-पुष्प फल तोडेगा, भक्षण करेगा वगैरह सब पाप छुडानेवाले के सिर लगते हैं । अर्थात् जैसे किसी में गाय - बेल वगैरह भरे हुए हैं, और उसके पास अग्नि लगी हो, तो उस वंडेका दरवाजा खोल करके उन जानaist बाहर नहीं निकालने चाहियें। क्योंकि उनको निकालेंगे तो वे गाय-बैल वगैरह पशु मैथुन सेवेंगे - हिंसा करेंगे वह पाप दरवाजे खोलनेवाले के सिर पर है । इसके उपरान्त यह भी परूणा की कि - साधु के सिवाय कोई संयति नहीं है । अतएव, सिवाय साधुके और किसी को देनेमें निर्जरा या पुण्य होता ही नहीं है । '
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इस प्रकार भिखुनजीने दया और दानका निषेध किया । इस परूपणा में चार मनुष्य प्रधान थे। भीखुनजी तथा जयमलजीका चेला बखताजी, ये दो साधु तथा वच्छराज ओसवाल और लालजी पोरवाल, ये दो गृहस्थ । इन चारोंने मिल करके यह परूपणाकी ।