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________________ "बलसंघयण हीणाकरीरे, पूरो न पाले आचार । आगुच जिनजी इम भाषियोरे, इम कहेसे भेषधार ॥६॥" और दूसरी ओर स्वयं मुहपत्तीको हाथमें रख करके उपयोग पूर्वक बोलनेकी भी शक्ति नहीं रखते हैं। अब कहाँ रही जैसा चाहिये वैसे चारित्र पालनेकी शक्ति ? । बिचारे, उपयोगसे बोलनेकी भी शक्ति रखते नहीं (क्योंकि वे स्वयं स्वीकार करते हैं) तो फिर और बातोंमें क्या उपयोग रख सकते होंगे ? । अस्तु । तेरापंथी भाई, अपनी बातको स्थापन करनेके लिये एक और दलीलकोभी पेश करते हैं । वे करते हैं कि-" मुहपत्तीको हाथमें रखनेवाले भी व्याख्यानके समयमें मूंहपर बांधते हैं। जैसे वे एक प्रहरतक बांधते हैं, वैसे हम दिनभर बांधते हैं।" . ठीक है, लेकिन एक बात जरा बुद्धिसे विचारनेकी है। अव्वल तो व्याख्यानमें मुहपत्ती बांधनेका रिवाज, अब उतना नहीं है, जितना पहिले किसी जमानेमें था। लेकिन वह क्यों था ? इसका कारण भी तो खोजना चाहिये । इसका कारण यह था:- जिस समयमें कागज नहीं बनते थे, उस समयमें शास्त्र ताडपत्रोंके ऊपर लिखे जाते थे। जिन्होंने ताडपत्रोंकी प्रतियाँ देखी होंगी, उनको मालूम होगा कि-ताडपत्र लंबे तो हाथ हाथ-डेढ डेढ हाथके होते थे, और चौडे तीन या चार आंगुलकी पट्टीके । जब उन ताडपत्रों पर लिखे हुए शास्त्र व्याख्यानमें वांचे जाते थे, तब व्याख्यान करनेवालेको अपने दोनों हाथोंसे उन लंबे पत्रोंको पकडना पडता था । जब दोनों हाथ पुस्तकके ही पकडनेमें रहे, तब मुहपत्तीको कहाँ रखना ? । और विना मुहपत्तीके बोलें, तो भी जीवोंकी विराधना और ज्ञानकी आशातना हो । बस, इसी
SR No.007294
Book TitleTerapanthi Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherAbhaychand Bhagwan Gandhi
Publication Year1915
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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