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________________ अर्थात्-श्रीवनस्वामीने श्लेष्मरोगके कारणसे सूट मंगवाई । उसको उपयोगमें लेते हुए जितनी बची, उतनी कानमें रखली । जब सायंकालकी प्रतिलेखना (पडिलेहणा) करने लगे, उस समय मुखवस्त्रिकासे कानोंकी पडिलेहण करते हुए सूंठका गांठिया नीचे गिर पडा । अतएव वनस्वामीने विचार किया कि-मुझको ऐसी विस्मृति उदय भाई, इससे मालूम होता है कि अब मेरी आयुष्य क्षीण है। प्रियपाठक, है यहाँपर पुस्तकारूढका नामोनिशान भी ?। कहीं की बातको, कहीं घुसा करके अपनी इष्टसिद्धि करनेवाले. तेरापंथियोंके प्रपंचोंको देखने चाहिये । ऐसे प्रपंचोंमें, सिवाय भोले-अज्ञात लोगोंके और कोई भी नहीं फैंस सकता, यह बात भी तेरापंथियोंको अवश्य ध्यानमें रखनी चाहिये । तेरापंथियोंका यह कहना भी ठीक नहीं समझा जाता है. कि'हमसे उपयोग नहीं रहता, इस लिये बांधते हैं।' क्योंकि-सिर्फ बोलनेके समयमें, मूंहपर मुहपत्ती रखनेका उपयोग नहीं रख सकते हैं, तो फिर पांचों महाव्रतोंके पालनेमें कैसे उपयोग रखा, सकते होंगे ? । यह एक विचारनेकी बात है। एवं जैसे मुहपत्तीका उपयोग नहीं रख सकते, वैसे ओघेका (रजोहरणका) भी उप-. योग क्या रहता होगा ? । कभी चलते फिरते जरूर बगळमें रखना भूल जाते होंगे। और इस न्यायसे तो ओघेको भी कहीं न कहीं बांध करके ही फिरना चाहिये ।। प्रियपाठक ! तेरापंथियोंकी यतुराईको देखिये । एक ओर वो तेरापंथी कहते हैं:-"जो लोग यह कहते हैं कि इस कालमें जैसा चाहिये वैसा चारित्र महीं पल सकता, यह उनकी भूल है।" जैसे भीखुचरित्रकी तीसरी ढालमें लिखा है:
SR No.007294
Book TitleTerapanthi Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherAbhaychand Bhagwan Gandhi
Publication Year1915
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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