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मुंबईप्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक ।
जैन शिल्पकला खूब फैली हुई थी। इसी समय उनहिळवाड़ा नगर भी बहुत समृद्धिशाली था जो मंदिरोंसे व दूसरी बड़ी २ इमारतोंसे पूर्ण था ।
इतिहास - यह है कि यह करणवती नगरी ग्यारहवीं शताब्दी में स्थापित हुई थी । वल्लभीका राजा शिलादित्य था जिसने पांचवीं शताब्दी में जैनधर्म धारण किया । जैन लोग बौद्धोंसे पहले की एक बहुत प्राचीन जाति है । इन्होंने अपना सिक्का गुजरात और मैसूर में अच्छी तरह जमाए रक्खा । अब भी इन लोगों के हाथमें भारतका बहुत व्यापार व बहुत धन है । अपने मंदिरोंकी सुन्दरता
मूल्यता के लिये ये लोग प्रसिद्ध हैं । मैसूर और धाड़वाड़ में भी इनकी बहुत संख्या है । वल्लभीके पतन होनेपर पंचासूरके राजा जयशेषरको दक्षिणके सोलंकी राजपूतोंने हरा दिया तब उसने अपनी गर्भस्था स्त्री रूपसुन्दरीको उसके भाई सूरपालके साथ जंगल में भेज दिया । वहां उसके पुत्र हुआ जिसको उसकी माता एक जैन साधुके पास गई । साधुने बालकको भाग्यवान जाना तब उसका नाम वनराज रक्खा गया । सन् ७४६ में जब वह ५० वर्षका हुआ तब उसने सोलंकीको भगा दिया और उनहिल - वाडा नगरकी नींव डाली । उसका मुख्य मंत्री चम्पा हुआ । ६०० वर्ष तक गुजरातका राज्यस्थान उनहिलवाड़ा रहा । वनराजने आफ्रिका व अरबसे व्यापार चलाया व इसने बहुतसे मंदिर बनवाए। इसके पीछे इसके पुत्र योगराज, फिर खेमराज, भोगराज, श्री वैरसिंहने राज्य किया, फिर रत्नादित्य राजा हुआ, फिर सामंतसिंह हुए । इसने मूलराज सोलंकीको गोद लिया जो सन् ई० ९४२