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________________ २४ प्रा० ० इ० चौथा भाग है संकुचितता की तो इतनी उन्नति हुई है कि एक दूसरे के उपाश्रम में उतर भी नहीं सकते हैं। वन्दन व्यवहार और आहार पानी का तो काम ही क्या ऐसी संकोचवृत्ति हो वहाँ क्या आशा रक्खी जाती है । जैसा हाल साधु समाज का है वैसा ही गृहस्थों का है इसमें भी रूढीचूस्त (पुराने बिचार ) और नवयुवक सुधारक पार्टी के आपस के मत भेद कि ज्वाला समाज को किस ओर लेजा रही है पर दोनों पार्टियों ने समाज का कितना काम किया है ? सिवाय राग द्वष की वृद्धि क्लेश कदागृह के एक कदम भी आगे नहीं बढ़े हैं। जब हम हमारी शिक्षाप्रचार की ओर देखते हैं तो वहाँ भी अन्धकार का पार नहीं है जिस शिक्षालय से हम आशा करते हैं कि प्रत्येक साल दस बीस समाज सेवक पैदा होंगे उनके बदले हम प्रतिवर्ष पाँच पच्चीस नास्तिक पैदा हुए देखते हैं कि न तो वे धर्म के काम के हैं और न वे कर्म के काबिल रहते हैं इस पाश्चात्य शिक्षा ने हमारे अन्दर इतनी बेकारी फैला दी है कि जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कारण इस शिक्षा में धार्मिक और व्यौपारिक शिक्षा का तो प्रायः अभाव ही है और समाज का व्यवसाय प्रायः साधारण व्यौपार पर निर्भर है जिससे तो वे हाथ धो बैठे और नौकरी मिलती नहीं है यह ही कारण है कि समाज में बेकारों की संख्या बढ़ती जा रही है अब उनके लिये एक ही स्थान रहा है कि वे जैन साधुओं के पास जा कर दीक्षा लेकर भिक्षावृति पर अपना गुजारा करें। ___ हम आज के वातावरण से मूर्तिपूजक जैन समाज का भविष्य कुछ और ही रूप से देख रहे हैं कारण प्रथम तो इस समाज में निर्नायकता हद के पार चली गई है दूसरा गुजरात ने साधुओं पर न जाने क्या जादू डाला है कि वे हजारों लेख लिखने पर
SR No.007290
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1935
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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