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प्राचीन जैन इतिहास संग्रह।
(८) भद्रावती नगरी का राजा शिवदत्त
"जैनराजा" . ___जैसे आधुनिक प्राचार्य जैनियों का संगठन तोड़-तोड़ के
अपने बाड़ा बन्धन में सलग्न हैं उसी भाँति पूर्वाचार्य नये २ प्रांतों में अजैनों को जैन बना के उनका संगठन बल बढ़ाने में संलग्न थे। प्राचार्य कक सूरि एक समय विहार कर सौरठ की ओर जा रहे थे पर रास्ता भूल जाने से एक पहाड़ों के बीच भयंकर जंगल में जा निकले । वहाँ एक देवी को नरबली देने की तैयारी हो रही थी जिसकी बली दी जा रही थी वह युवक भी वहाँ उदास बदन से बेठा हुआ था । पर उनके चेहरे से यह पाया जाता था कि यह कोई भाग्यशाली है। प्राचार्य श्री ने अपने आत्मबल और उपदेश द्वारा उन घातिकों को समझा कर उस भव्य को प्राण दान दियावह था भद्रावती के राजा शिवदत्त का लघु पुत्र देवगुण कुमार । उसने आचार्यश्री का महान उपकार मान अपने नगर में ले गया। प्राचार्यश्री ने राजा एवं प्रजा को अहिंसा मय धर्म सुनाया, जिसका असर उपस्थित श्रोताओं पर इस कदर हुओ.. कि उन्होंने उसी समय जैन-धर्म को स्वीकार कर आचार्यश्री के परमोपासक बन गये, कालान्तर उसी देवगुप्तकुमार ने आचार्य श्री के पास जैन दीक्षा म्वीकार कर ली और आचार्य श्री उसको सर्व प्रकार से योग्य समझ अपने पट्ट पर स्थापन कर सिद्धगिरी की शितल छाया में अपना कल्याण किया। आचार्य देवगुप्त सूरि ने कच्छ एवं सोरठ में जैन-धर्म का खूब प्रचार किया।
___ "उपकेश गच्छ पट्टावली"