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गणतो परिहासक-कुलतो पोणपत्रिकातो साखातो गणिस्य श्रायं देवदत्तस्य न................।
इस का अर्थ इस प्रकार है :
विजय । ॐ अर्हत् महावीर देव का नमस्कार करके राजा वासुदेव के संवत् ६८ वर्ष में, वर्षा ऋतु के चौथे महीने में. मिति ११ के दिन आर्य रोहण के द्वारा स्थापित किये हुए गण के, परिहास कुल के, 'पौर्णपत्रिका' शाखा के गणि आर्यदेवदत्त के।
इन उपर्युक्त सब लेखों को पढ़ने से डाक्टर बृल्हर लिखते हैं कि :
१. संवत् ५ से १८ तक अथवा ईस्वी सन् ८३ से १६६-६७ मध्यवर्ती काल में मथुरा के जैन साधुओं के अनेक गण, कुल तथा शाखाएं थीं।
२. तथा इन लेखों में लिखे हुए साधुओं के नाम के साथ वाचक, गणि, आचार्य आदि उपाधियों का भी उल्लेख है । ये उपाधियां जैनधर्मानुयायो उन यति साधुओं को दी जाती थीं, जो साधु रम्न्धी शास्त्रों (जैन जैनेतर शास्त्रों) के प्रकांड विद्वान होते थे। तथा ये पदवीधारी साधु और श्रावकों को इन शास्त्रों को समझाने में निपुण होते थे। जिस साधु को गणि (आचार्य) पदवी दी जाती थी वह उस गच्छ का नेता माना जाता था । इस लिये यह उपाधि बहुत बड़ी समझी जाती थी। वर्तमान काल में भी इसी पुरानी रीति के अनुसार आचार्य पदवी प्रमुख साधु को देने की पद्धति है।
३. शालाओं (गणों) में से कौटिकगण की बहुत शाखाए हैं। इस लिये इसका बहुत बड़ा इतिहास होना चाहिये ।