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वयरितो साखातो वाचकस्य नागनंदिस्य निवर्तनं ब्रह्मधूतये भट्टिमित्तस्य कोडुबिगिये विकडाये श्री वर्धमानस्य प्रतिमा कारिता सव्वसत्त्वानं हित-सुखाये।
अर्थ :-विजय ! महाराजा कनिष्क के राज्य में नवें वर्ष के पहिले महीने में मिति ५ के दिन ब्रह्मा की बेटी, भट्रिमित्र की स्त्री विकटा ने सर्व जीवों के कल्याण तथा सुख के लिए कीर्तिमान वर्धमान की प्रतिमा कौटिकगण (गच्छ), वाणिज कुल और वयरी शाखा के आचार्य नागनन्दि की निर्वर्तना (प्रतिष्ठित) है । (यह मूर्ति ए. कनिंघम के मत से ई० पू० वर्ष ४८ की है)।
___ जब हम कल्पसूत्र पर दृष्टि डालते हैं, तो उस मूलपाठ वाली प्रति के पत्रे-१-८२ एस. वी०ई० वाल्युम २२ पत्र २६३ से हमें ज्ञात होता है कि सुट्ठिय (सुस्थित) नामक आचार्य ने जो श्री महावीर प्रभु के आठवें पट्ट प्रभावक थे "कौटिक" नामक गण स्थापन किया था। उस के विभाग रूप चार शाखाएं और चार कुल हुए। तोसरी शाखा "वयरी' थी तथा तीसरा वाणि न नामक कुल था। कल्पसूत्र का मागधी भाषा का पाठ यह हैं ।
__ “थेरेहिंतो णं सुट्टियसुप्पडिबुद्धेहितो कोडिय काकंदिएहितो वग्यावच्चस गुत्तहिंतो इत्थरणं कोडियगणे णामं गणे निगए। तस्सणं इमाओ चत्वारि साहाओ, चत्तारि कुलाइं एवमाहिज्जति । से किंतं साहाओ ? साहात्रो एवमाहिज्जंति, तंजहा-उच्वनागरी १. विजाहरी २. वयरी य ३. मझिमिल्ला य ४. कोडिय गणस्स एया हवंति चत्तारि साहाओ ।१॥ से तं साहाओ।
से किंतं कुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जंति, तंज्जहा-पढमित्थ बंभलिज्ज बिइयं नामेण वित्थलिज्जंतु, तइयं पुण वाणिज्ज, चउत्थय परहवाहणयं ।।