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उल्लेखनीय है कि शुग सम्राट पुष्यमित्र (ई० पू० १८५ से १४६) के पुरोहित मगधवासी ब्राह्मण वैयाकरणिक पातंजल ने अपने सुविख्यात महाभाष्य ग्रंथ में बंगाल जनपद को आर्यावर्त से बाहर ही गिना है। (अर्थात् ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी तक वैदिक आर्य ग्रंथों में बंग जनपद का आर्य भूमियों में उल्लेख नहीं मिलता) परन्तु अनुमानतः लगभग ईसा की प्रथम शताब्दी के मनुसंहिता में हम देखते हैं कि बंगालदेश को आर्यावर्त के मध्यवर्ती स्वीकार किया है। __ अतएव यह बात निःसन्देह है कि बंगालदेश में वैदिक आर्यधर्म ने जैन, बौद्ध और आजीवकधर्मों के बाद प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। तो बंगालदेश में सर्व प्रथम किस भारतीय धर्म ने प्रतिष्ठा एवं विस्तार प्राप्त किया था ? इसी प्रश्न के उत्तर के लिये अब यहां विचार करने की आवश्यकता है। हम पहले
अागमों में इस पर्वत पर पार्श्वनाथ के निर्वाण पाने से पहले अनेक तीर्थकरों के आने तथा वहीं मोक्ष पाने के प्रमाण उपलब्ध हैं पार्श्वनाथ भी इस पर्वत पर मोक्ष पाये थे। (Kalpsutra Sut 168) ।
एवं वैदिक अायधर्भ के वेदों को वर्तमान ऐतिहासिक विद्वान साढ़े तीन हज़ार ( १५०० ई० पृ० ) वर्ष पुराने मानते हैं। जब वैदिक आर्य भारत में आये तो उन के आने से पहले यहां जैनधर्म प्रचलित था तथा इस जैनधर्म की आध्यात्मिकता और पवित्रता से वे इतने प्रभावित हुए कि वेदा, पुराणों तथा स्मृतियों में जैन तीर्थ करों के प्रति अपनी श्रद्धा और भक्ति से नतमस्तक हो कर उनकी शरण प्राप्त करने के लिये उत्सुक हो पड़े । यहां पर उन के कुछ उद्धरणों का उल्लेख करना उचित प्रतीत होता है :