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ग्रंथ में होने से इन कथन नहीं है । और
यह ग्रंथ खूप संभवतः ई० पू० छठी शताब्दो का बुद्ध, महावीर और गोसाल से भी पहले का रचित है । अतएव यह बान निश्चित है कि इस समय तक ब्राह्मणधर्म ने विशेष रूप से विस्तार प्राप्त नहीं किया था । तथा यह बात भी ठीक है कि जो लोग कलिंग और बंग जायेंगे उन्हें वापिस लौटने पर प्रायश्चित ले कर शुद्ध होना पड़ेगा ऐसी व्यवस्था इस दोनों जनपदों में जाने का तथा लौटने का शताब्दी के लेख प्रतीत होते हैं (lbid P. 371 ) । विशेष में यह अर्ध्य एक से अधिक अहन्तों को तथा खास कर श्री ऋषभदेव को श्रपण किया गया है । यह इस बात की पुष्टि करता है कि जैनधर्म का प्रारंभकाल अति प्राचीन है तथा यह भी स्पष्ट करता हे कि ऋषभदेव के समय से लेकर क्रमशः अनेक तीर्थकर होते आये हैं । इन्हीं सब श्राधारां के कारण पाश्चात्य तथा भारतीय निष्पक्ष ऐतिहासिक विद्वानों ने लिखा है कि जैनधर्म बहुत प्राचीन काल से चला आता है तथा वेदा मे भी जैनधर्म के तीर्थंकरों का ज़िक्र आता है । भारत के उपप्रधान डा.
सर. राधाकृष्णन लिखते हैं कि :- There is evidence to show that so far back as the first century B.C. there were people who were worshiping Rishabhadeva, the first Tirthankra. There is no doubt that Jainism prevailed even before Vardhamana or Parsvanath. The Yajurved mentions the names of three Tirthankras, Rishabha, Ajitnath and Arishtnemi. The Bhagwat Puran endorses the view