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________________ ३६ लिखा हुआ है। यदि और भी उत्तरवर्ती काल को देखें तो व्रात्य-स्तोम यज्ञ के द्वारा-मगधनिवासी ब्रात्यों को आर्यधर्म में दीक्षित करने की व्यवस्था भी पाई जाती है । किन्तु उस समय के मगधदेश के ब्राह्मणों को भी 'ब्राह्मणबन्धु' अर्थात् अपब्राह्मण कह कर उन के प्रति घृणा प्रगट की जाती थी। पुराणों में भी इन्हों ने बिम्बसार; अजातशत्रु प्रभृति विख्यात मगध के राजाओं को 'क्षत्रबन्धु' अर्थात् व्रात्य-क्षत्रीय अथवा अप क्षत्रीय कह कर तुच्छ गिना है। परन्तु कौशीतकी अथवा सांख्यायन आरण्यक में मध्यम और प्रतिबोधिपुत्र नामक दो मगधवासी ब्राह्मणों के लिये यथेष्ठ सम्मान प्रदर्शन किया हुआ है। उक्त सांख्यायन आरण्यक ग्रंथ ई० पू० छठी शताब्दी में रचा गया था। ऐसी मान्यता के लिये यथेष्ट हेतु हैं। पुनः बोधायन के धर्म सूत्र में मगधवासियों को मिश्रजाति (संकीर्ण यानि) सम्बोधन कर वर्णन किया गया है। इन्हीं सब प्रमाणों से एक मात्र यही सिद्धांत निश्चित किया जा सकता है कि ई० पृ० छठी शताब्दी में आर्य लोग विदेह, अंग और मगध में थोड़ा बहुत स्थान प्राप्त कर पाये थे। इन्हीं तीनों जनपदों के अधिवासियों ने इसी समय इन आर्यों की सभ्यता और धर्म मात्र आंशिक रूप से ग्रहण किया था । इसीलिये मध्यदेशवासी आर्यों के द्वारा यहा के लोग 'ब्राह्मणबन्धु' 'क्षत्रबन्धु' अथवा' संकीर्ण-योनि' आदि मिश्रत्व बाधक विशेषणा द्वारा संबाधित हुए थे। विदेह, अंग और मगध में आर्यों ने आकर वसति (निवास स्थान) बनाने प्रारंभ किये थे । ई० प० छठी शताब्दी के बहुत पहले
SR No.007285
Book TitleBangal Ka Aadi Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodhchandra Sen, Hiralal Duggad
PublisherVallabhsuri Smarak Nidhi
Publication Year1958
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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