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________________ २४ समान एकछत्र सम्राट की पृष्ठयोषकता को प्राप्त किये हुए था उस समय इस धर्म ने मगध के समीपवर्ती बंगालदेश में भी प्रधानता लाभ की थी । हम पूर्व में लिख आये हैं कि ताम्रलिप्ति, कोटिवर्ष, पौंड्रवर्धन और कन्वर्ट इन चार स्थानों के नाम से जैन मुनियों की चार शाखाएं थीं। इस लिये इन सब स्थानों में जैनधर्म का प्राधान्य अशोक के पूर्व ही प्रतिष्ठित हो चुका हुआ था ऐसा स्वीकार करना अनुचित न होगा । क्योंकि हम यह भी जान चुके हैं कि अशोक के शासन काल में भी पौंड्रवर्धन में जैन ( एवं आजीवक) धर्म का यथेष्ठ प्रभाव था तथा ईसा की सातवी शताब्दी में ह्यू सांग के समय में भी पौंड्रवर्धन में जैन संप्रदाय बौद्ध संप्रदाय से प्रबलतर था; अतएव यह कहना होगा कि अशोक के समय बौद्धधर्म के विशेष रूप से प्रचारित होने के पहले से ही चन्द्रगुप्त के समय बङ्गालदेश में जैनधर्म ने विशेष रूप से प्रतिष्ठा प्राप्त की थी । मौर्यवंश का पूर्ववत मगध का नन्द राजवंश भी जैनधर्म के प्रति विशेष अनुरक्त था (Oxford History smith p. 75 ) हमें कलिंगराज खारवेल के हाथीगुफा की लिपि (शिलालेख) से ज्ञात होता है कि नन्दवंशीय कोई राजा कलिंग से एक जिनमूर्ति मगध में ले आया था । इतिहासज्ञों की धारणा है कि यही नन्द राजा पुराण के "सर्वक्षत्रांतक" " एकराट " महापद्म नन्द के सिवाय अन्य कोई नहीं था । महापद्म नन्द ही ने संभवतः कलिंग जय किया था ; जो हो । हाथीगुफा लिपि के इस विवरण से यही सिद्धान्त निश्चय किया जा सकता है कि ईसा के पूर्व चौथी
SR No.007285
Book TitleBangal Ka Aadi Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodhchandra Sen, Hiralal Duggad
PublisherVallabhsuri Smarak Nidhi
Publication Year1958
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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