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एक समान प्रचार था । उस समय बंगाल प्रांत या बंगदेश में बौद्धधर्म की केवल दो शाखाएं अर्थात् हीनयान एवं महायान विद्यमान थीं। यह बात चीनी यात्री के विवरण से स्पष्ट ज्ञात होती है। किन्तु ऐसा अनुमान होता है कि उस समय बंगाल देश में बौद्धधर्म धीरे-धीरे क्षीण अवस्था को प्राप्त होता जा रहा था। क्योंकि रासांग ने स्वयं ही लिखा है कि किसी किसी स्थान पर (यथा वैशाली और चम्पा में) बौद्ध संघाराम अधिकांश ध्वंस दशा प्राप्त कर चुके थे। ह्यू सांग के पूर्ववर्ती चीनी यात्री फाहियान ने ताम्रलिप्ति नगरी में दो वर्ष तक (ई० स०. ४०६ से ४११) वास किया था। उस ने लिखा है कि उस समय ताम्रलिप्ति नगर में बौद्ध धर्म का यथेष्ठ प्रभाव था। एवं उस नगरी में बौद्ध संघाराम बाईस की संख्या में थे। परन्तु ह्यू सांग के समय में मात्र दस संघारामों की ही संख्या थी। अतएव यह बात स्पष्ट है कि दो सौ तीस वर्षों (ई० स० ४०६ से ६३६) के अन्दर ताम्रलिप्ति में बौद्धधर्म की बहुत कुछ अवनति हो चुकी थी। ह्यू सांग के विवरण से एक बात
और ध्यान देने योग्य है कि ईसा की सातवीं शताब्दी में कामरूप कंगोद तथा कलिंग इन तीन प्रदेशों में बौद्धधर्म का विशेष प्रचार न हो पाया था । पूर्व-भारतवर्ष में ब्राह्मणधर्म, बौद्धधर्म तथा जैनधर्म में परस्पर बहुत शताब्दियों तक प्रबल प्रतियोगिता (संघर्ष) चलती रही थी। इसी कारणवश उक्त तीनों प्रदेशों में बौद्धधर्म प्रधान स्थान प्राप्त नहीं कर सका था। एवं इस प्रतियोगिता के फलस्वरूप ताम्रलिप्ति में फाहियान के समय से लेकर ह्य सांग के समय तक प्रायः अढ़ाई सौ वर्षों के अन्दर बौद्ध संप्रदाय इतना दुर्बल हो गया था।