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प्रतिबोध देकर जीवहिंसा बंध कराई थी, और श्रीमान् हीर विजयसूरिजी महाराज के पास जैन तीर्थों का परवाना भी आप ही के साथ भेजा गया था । इस के अतिरिक्त "कृपारस कोष " के कर्ता भी आप ही हैं। जिस को प्रकाशित करते श्रीमान जिनविजयजी पृष्ठ २३ पर बयान करते हैं कि
" सिद्धीचन्द्र भी शांतिचंद्र ही के समान शतावधानी थे इस से इन की प्रतिमा के अद्भुत प्रयोग देख कर बादशाहने इन्हें " खुशफहेम " की मानप्रद पद्वी दी वे फारसी भाषा के भी अच्छे विद्वान थे " इस लिये और भी बहुत से अकबर के दरबारियों के साथ इन की अच्छी प्रीति हो गई थी ।
इन ही महानुभाव के चरण सम्वत् १६८८ के प्रतिष्ठित मरुदेवी माता के हाथी के पास स्थापित है । यह तमाम इतिहास श्वेताम्बर सम्प्रदाय के हक्क में प्रबल हैं, क्यों कि सम्वत् १६८५ में मन्दिर के शिखर की पूर्णता और सम्वत् १६८८ में श्रीमान् सिद्धिचन्द्र, भानुचन्द्र के चरण की स्थापना यह प्रमाण कितना मजबूत है । और इन से यह सिद्ध होता है कि सम्वत् १६८८ में भी श्वेताम्बर समाज का इस तीर्थ पर पूर्ण अधिकार था ।
एक बात और जानने योग्य है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में स्त्री को मोक्ष प्राप्त होना नहीं मानते और इसी वजह से भगवान श्री ऋषभदेवजी के माता जिन का नाम " मरुदेवी
"