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सारा समाज की स्थिति निर्माल्य हो गई, कइ कुटुम्ब रंक अवस्था में आ गये, व्यापार का भी अन्त आगया और लोग वीर्यहीन हो गये, करामात-चमस्कार का अभाव हो गया और आपसी टंटे-झगडों से प्राचीन ख्याति व प्रभूता का भी नाश कर बैठे, और कह श्रीमंत श्रद्धाहीन बन चुके और सरकारी अमलदारशाहीने भी मुंह फेर कर पुरानी मर्यादा को छोडदी। इत्यादि तरह से जहां देखो वहां क्रेशमय संसार, दुःख दारिद्र का रोना-पीटना और सुबह की शाम होना कठिन, एसी अवस्था में मुकद्दमेबाजी में धन बरबाद करना सम्पूर्ण धृष्टता है। अतएव हम तो बारबार यही प्रार्थना करेंगे कि अब समाज को संभल जाना चाहिये, अब वख्त सोने का नहीं है।
जमाने के हेरफेर को देखते इस समय इस पुस्तक को प्रकाशित कराने की आवश्यक्ता नहीं थी लेकिन वास्तविक इतिहास जानने में
आवे और नये बखेडे पैदा न हों या पैदा हों तो उन को हटाने का मार्ग सुगम हो जाने के हेतु से ही इस पुस्तक का प्रकाशन आवश्य. कीय समझा गया है।
इस पुस्तक का साहित्य संग्रह करने में श्रीमान् माणकसागरजी महाराजने बहुत सहायता प्रदान की है एतदर्थ महाराजश्री का अंत:करण से उपकार मानता हुँ, और जिन महानुभावोंने चित्र-शिलालेख आदि प्राप्ती में व प्रश्नोत्तर में अपना समय दिया है उन को धन्यवाद है।
पाठक ! पुस्तक के वांचन में त्रुटियों के लिये क्षमा कर इस के असल भाव को ग्रहण करें यही लेखक की प्रार्थना है। किं बहुना
. भवदीयचंदनमल नागोरी.