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अष्ट करम दल घेर रह्यो छे, जिनसुं समरण नहीं बनता ॥ भव भव प्रभुजी सेवा दीजो, तुम साहेबने हम बंदा ।। २० ॥ में तो प्रभुजी सेवग तारा, किरपा कीजो रिषभजी ॥ मेरे पासरो एक तुमारो, तुम दरसण में हम राजी ॥ २१ ॥ अदकी ओपमा तुमकुं सोहे, कहेतां कछु पार न पावे ॥ नरभव पाय तुज नही ध्यावे, जे नर दुरगत कुं जावे ॥ २२ ॥ कहत लावनी रोडा गुरजी, अरज सुणो प्रभुजी मोरी ॥ चोरासी की दुरगति टालो, ओर टालो भवकी फेरी ॥ २३ ॥ समत १८ साठ वरसे, माही पुनम गुरुवारे ॥ कही लावनी अल्प बुधसुं, सहेर सलुंबर माहे प्यारे ।। २४ ॥
इति श्रीऋषभदेवजीरी लावणी संपूर्णम्
खड़ा खडा प्रभु अरज करंता, समरण करता सब तोरी । दीनानाथ मोरी अरजी सुन कर,भवकी टालो तुम फेरीए आंकणी विनीता नगरी में तोरा जन्म है, माता तोरी मरुदेवा । चोसठ इंद्र तोरी कर चाकरी, चंद्र सूर्य करता सेवा ॥ नाभीराय के कुलमें सोहे, ऋषभदेवजी नाम तोरी ॥१॥ धुझेवा नगर तेरा खुब बना है, वहां है देवल जिनवर का । फीरती बावन डेहरी सोहे, हस्ती खडा मरुदेवी का ॥ दोनुं हाथी जुले गोखा, दरवाजे प्राकुम भारी ॥२॥