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दूसरा अध्याय न्याय-व्यवस्था
न्यायाधीश न्याय-व्यवस्था चलाने के लिए न्यायाधीश की आवश्यकता होती है। प्राचीन जैन ग्रंथों में न्यायाधीश के लिए कारणिक अथवा रूपयक्ष (पालि में रूपदक्ष ) शब्द का प्रयोग हुआ है। रूपयक्ष को भंभोय (? अथवा अंभीय; 'ललितविस्तर' में आंभीर्य कहा गया है), आसुरुक्ख (? 'ललितविस्तर' में आसुर्य ), माठर के नीतिशास्त्र और कौडिन्य को दण्डनीति में कुशल होना चाहिए, उसे लांच नहीं लेनी चाहिए और निर्णय देते समय निष्पक्ष रहना चाहिए। लेकिन न्याय
१. व्यवहार भाष्य १. भाग ३, प० १३२ । रूपेण मा यक्षा इव रूपयक्षाः, मूर्तिमन्तो धर्मैकनिष्ठा देवा इत्यर्थः, अभिधानराजेन्द्र कोष 'रूपयक्ष'। न्यायकर्ता के सम्बन्ध में मृच्छकटिक ६, प० २५६ में कहा है- . ,
शास्त्रज्ञः कपटानुसार कुशलो वक्ता न च क्रोधनस्तुल्यो मित्रपरस्वकेषु चरितं दृष्ट्वैव दत्तोत्तरः । क्लीबान्पालयिता शठान्व्यथयिता धर्यो न लोभान्वितो
द्वार्भावे परतत्वबद्धहृदयो राज्ञश्च कोपापहः ॥ -न्यायकर्ता को शास्त्रों का पण्डित, कपट को समझने में कुशल, वक्ता, क्रोध न करने वाला, अपने मित्र और अमित्र में समान भाव रखने वाला, चरित्र देखते ही उत्तर दे देने वाला, कायरों का रक्षक, मूखों को कष्टदायक, धार्मिक और लोभशून्य होना चाहिये।
दीघनिकाय की अट्ठकथा ( २, पृ० ५१६ ) में वैशाली की न्याय-व्यवस्था का उल्लेख है । जब वैशाली के शासक वजियों के पास अपराधी को उपस्थित किया जाता, तब सबसे पहले उसे विनिश्चय-अमात्य के पास भेजा जाता। यदि वह निर्दोष होता तो उसे छोड़ दिया जाता, नहीं तो व्यावहारिक के पास भेजा जाता । व्यावहारिक उसे सूत्रधार के पास, सूत्रधार अष्टकुल के पास, अष्टकुल सेनापति के पास, सेनापति उपराजा के पास और उपराजा उसे राजा के पास भेज देता। तत्पश्चात् 'प्रवेणीपुस्तक' के आधार पर उसके लिए दण्ड की व्यवस्था की जाती।