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पहला अध्याय केन्द्रीय शासन व्यवस्था
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जैन आगमों में चाणक्य के अर्थशास्त्र अथवा ब्राह्मणों के धर्मसूत्रों की भाँति शासन व्यवस्था सम्बन्धी विधि-विधानों का व्यवस्थित उल्लेख नहीं मिलता। जो कुछ संक्षिप्त उल्लेख यहाँ उपलब्ध है वह केवल कथा-कहानियों के रूप में ही है, और ये कथा - कहानियाँ साधारण - तया तत्कालीन सामान्य जीवन का चित्रण करती हैं। श्रमण धर्म के अनुयायी होने के कारण जैन विद्वानों ने तप, त्याग और वैराग्य के ऊपर ही जोर दिया है, इहलौकिक जीवन के प्रति रुचि उन्होंने नहीं दिखाई | ऐसी हालत में, जैन आगमों में इधर-उधर बिखरी हुई संक्षिप्त सूचनाओं के आधार पर ही तत्कालीन शांसन-व्यवस्था का चित्र उपस्थित किया जा सकता है ।
राजा और राजपद
जैन परम्परा के अनुसार, ऋषभदेव प्रथम राजा हो गये हैं जिन्होंने भारत की प्रथम राजधानी इक्ष्वाकुभूमि (अयोध्या) में राज्य किया। इसके पूर्व न कोई राज्य था, न राजा, न दण्ड और न दण्डविधान का कर्त्ता । यह एक ऐसा राज्य था जहाँ सभी लोग अपनेअपने धर्म का पालन करते हुए सदाचार और आनन्दपूर्वक जीवनयापन करते थे । इसलिए उनमें किसी प्रकार का वैमनस्य अथवा लड़ाई-झगड़ा नहीं था, और लड़ाई-झगड़ा न होने से दण्ड की कोई आवश्यकता नहीं थी। लेकिन तीसरे काल के अन्त में, जब यतिगण धर्म से भ्रष्ट हुए और कल्पवृक्षों का प्रभाव घटा तथा युगल-सन्तान की उत्पत्ति होने पर सन्तान को लेकर प्रजा में वाद-विवाद होने लगा और समाज में अव्यवस्था फैलने लगी, तो लोग एकत्रित हो ऋषभदेव के पिता नाभि के पास पहुँचे और उनके अनुरोध पर ऋषभ का राजपद पर अभिषेक किया गया । ऋषभ ने ही पहली बार शिल्प