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________________ दूसरा अध्याय : जैन श्रागम और उनकी टीकाएँ ३३ ओर इङ्गित किया है ।" व्याकरण के रूपों की एकरूपता भी आगमों में दृष्टिगोचर नहीं होती । उदाहरण के लिए, कहीं यश्रुति मिलती है, कहीं उसका अभाव है, कहीं यश्रुति के स्थान में 'इ' का प्रयोग है; एक ही शब्द में कहीं ह्रस्व स्वर का प्रयोग देखा जाता है (जैसे गुत्त ), कहीं दीर्घ का ( जैसे गोत्त), कहीं महावीरे का प्रयोग हुआ है, कहीं मधावी का, तृतीया के बहुवचन में कहीं देवेहिं का प्रयोग है, और कहीं देवेभि का । इसी प्रकार व्याकरण के अन्य नियमों का पालन भी आगम-ग्रन्थों की रचना में देखने में नहीं आता । उत्तरकालीन आचार्यों ने, प्राचीन प्राकृत से सम्बन्ध विच्छेद हो जाने पर, कितने ही शब्दों के प्रयोगों में मनमाने परिवर्तन कर डाले, तथा सम्प्रदाय विच्छेद हो जाने के कारण वज्जो ( वृज्जि जाति; लेकिन अभयदेव ने अर्थ किया है इन्द्र - व अस्य अस्ति ), काश्यप ( महावीर का गोत्र; अभयदेव ने अर्थ किया है इक्षुरस का पान करने वाला - काशं इक्षुः तस्य विकारः काश्यः रसः स यस्य पानं स काश्यपः ), अन्धकवृष्णि, लिच्छिवि, आजीविक, कुत्तियावण ( कुत्रिकापण ) आदि कितने ही शब्दों के अर्थ विस्मृत हो गये । आगम- साहित्य में गड़बड़ी हो जाने से दृष्टिवाद आदि जैसे महत्त्वपूर्ण आगम सदा के लिए व्युच्छिन्न हो गये, अनेक आगमों के खण्ड, उनके अध्ययन और प्रकरण आदि विस्मृत कर दिये गये, 14. " १. सत्संप्रदायहीनत्वात् सदूहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे 11 वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगांभीर्यान्मतभेदाच्च कुत्रचित् ॥ क्षुण्णानि संभवतीह, केवलं सुविवेकिभिः । सिद्धांतानुगतो योऽर्थः सो स्याद् ग्राह्यो न चेतरः ॥ अभयदेव, स्थानांगटीका, पृ० ४६६ - ५०० । २. उदाहरण के लिए, अन्तः कृद्दशांग के प्रथम वर्ग में णमि, मातंग, सोमिल, रामगुत्त, सुदंसण, जमाली, भगाली, किंकम, पल्लतेतिय, फाल और पुत्त नाम के दस अध्ययन होने चाहिये, लेकिन ये अध्ययन अनुपलब्ध हैं; स्थानांगटीका १०, पृ० ४८२ - अ । अनुत्तरोपपातिक सूत्र के तृतीय वर्ग में भी इसी तरह की गड़बड़ी हुई है । प्रश्नव्याकरण, बंधदशा, द्विगृद्धिदशा, दीर्घदशा, संक्षेपिकदशा के अध्ययनों के सम्बन्ध में भी यही बात है । - ३ जै० भा०
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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