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________________ ५१० जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज घोषित कर दिया । उसने 'प्रतिदिन पूर्वाह्न और अपराह्न में श्रेणिक को सौ कोड़े मारने का हुक्म दिया और उसका भोजन-पान बन्द कर दिया । चेल्लणा तक उससे मिलने नहीं जा सकती थी । बाद में कहने-सुनने पर जब उसने चेल्लणा को मिलने की आज्ञा दो तो वह अपने केशों को सुरा में भिंगोकर, उनमें कुल्माष छिपाकर ले जाती थी | कारागृह में पहुँचकर वह अपने केशों को सौ बार जल से धोती और उसका पान कर श्रेणिक शक्ति प्राप्त करता ।" एक दिन की बात है, कूणिक अपनी माता के पादवंदन के लिए गया | माँ को चिंतित देख उसने चिंता का कारण पूछा। माँ ने उत्तर दिया - "बेटा, जब तुमने अपने पिता को जा तुम्हें जी-जान से प्यार करता था, कैद कर रक्खा है तो मुझे कैसे अच्छा लग सकता है ?" कूणिक ने कहा- "वह तो मुझे जान से मार डालना चाहता था, फिर तुम उसके स्नेह की क्या बात करती हो ?" इस पर रानी ने कूणिक के बचपन को बात सुनायी कि किस तरह उसके पिता ने उसे कूड़ो पर से उठाकर मँगवाया और किस प्रकार वह उसकी उंगली की वेदना शांत करने के लिए उसकी पीप चूस लेता था । यह सुनकर कूणिक को १. निरयावलियाओ १; आवश्यकचूर्णी २, पृ० १७१ । बौद्ध मान्यता के अनुसार, अजातशत्रु ने अपने पिता को तापनगेह में रक्खा था जहां कि केवल उसकी माता ही उससे मिलने जा सकती थी । आरम्भ में वह भोजन को अपने केशों में छिपाकर ले जाती थी, बाद में सुनहले जूतों में रखकर ले जाने लगी । उसके बाद वह अपने शरीर में सुगन्धित जल चुपड़ने लगी; श्रेणिक इसे अपनी जीभ से चाट लेता । लेकिन इसे भी बन्द कर दिया गया, और अजातशत्रु ने अपने नौकरों को श्र ेणिक के पांवों को चीरकर उन्हें नमक और तेल द्वारा आग पर पकाने का आदेश दिया । श्रेणिक का प्राणांत हो गया । इस समय अजातशत्रु को पुत्रोत्पत्ति का समाचार मिला । समाचार सुनकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ । प्रसन्न होकर उसने अपने पिता को जेल से छोड़ देने का हुक्म सुनाया, लेकिन अफसोस कि वह अब इस दुनिया में नहीं था, दीघनिकायअट्ठकथा, १, पृ० १३५ आदि । २. दूसरी मान्यता के अनुसार, एक बार, कूणिक और रानी पद्मावती के पुत्र उदायी ने, कूणिक के भोजन करते समय, उसकी थाली में मूत दिया । लेकिन उतने हिस्से को छोड़कर कूणिक भोजन करता रहा । अपनी माँ से उसने कहा--'मां, क्या किसी और का भी पुत्र इतना प्यारा होगा ?' यह सुनकर
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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