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परिशिष्ट १ २१-शूरसेन को ब्राह्मणों के अनुसार रामचन्द्र के लघुभ्राता शत्रुघ्न ने बसाया था । शौरसेनी यहां की भाषा थी। मथुरा के आसपास का प्रदेश शूरसेन कहा जाता है। __मथुरा शूरसेन की राजधानी थी । मथुरा उत्तरापथ' की एक महत्त्वपूर्ण नगरी मानी गयी है । इसका दूसरा नाम इन्द्रपुर था। इसके अन्तर्गत ९६ ग्रामों में लोग अपने अपने घरों और चौराहों पर जिनेन्द्र भगवान् को प्रतिमा स्थापित करते थे। यहां सुवर्ण-स्तूप होने का उल्लेख है, जिसे लेकर जैन और बौद्धों में झगड़ा हुआ था । कहते हैं कि अन्त में इसपर जैनों का अधिकार हो गया। रविषेण के बृहत्कथाकोश (१२.१३२) और सोमदेवसूरि के यशस्तिलकचंपू में इसे देवनिर्मित स्तूप कहा है। राजमल्ल के जम्बूस्वामिचरित में मथुरा में ५०० स्तूपों के होने का उल्लेख है, जिनका उद्धार अकबर बादशाह के समकालीन साहू टोडर ने कराया था। यह प्राचीन स्तूप आजकल कंकाली टोले के रूप में मौजूद है, जिसकी खुदाई से अनेक पुरातत्व सम्बन्धी बातों का पता लगा है।
मथुरा में अन्तिम केवलो जम्बूस्वामो का निर्वाण हुआ था, इसलिए सिद्धक्षेत्रों में इसको गणना की गयी है। ईसवी सन् को चौथी शताब्दी में जैन आगमों को यहां संकलना हुई थी, इस दृष्टि से भी इस नगरी का महत्त्व समझा जा सकता है। आर्यमंगु और आय
१. यहाँ अत्यन्त शीत पड़ने के कारण, वस्त्र के अभाव में साधरण लोग आग जलाकर रात काटते थे, निशोथचूर्णी पीठिका १७५ । शीत की भाँति गर्मी भी यहां बहुत अधिक होती थी, वही २४७ । यहां के लोग रात्रि में भोजन करते थे, वही ४५५ । उत्तरावह धर्मचक्र के लिये प्रसिद्ध था; वही १०.२९२७ ।
२. आवश्यकचूर्णी २, पृ० १९३ । ३. बृहत्कल्पभाष्य १.१७७४ आदि ।
४. व्यवहारभाष्य ५.२७ आदि । मथुरा के कंकाली टीले को विशेष जानकारी के लिए देखिए आर्कियोलोजिकल सर्वे रिपोर्ट स, भाग ३, प्लैटस १३-१५; बुहलर, दी इण्डियन सैक्ट्स ऑव द जैन्स, पृ० ४२-६०; वियना औरिंटियल जरनल, जिल्द ३, पृ० २३३-४० जिल्द ४, पृ० ३१३-३१ ।
५. तुलना कीजिए रामायण ७.७०.५ । ६. आवश्यकचूर्णी २, पृ० ८०। .