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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
नन्दी' तथा अणुयोगदार' ( अनुयोगद्वार ) 3 | श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदाय आगमों को स्वीकार करते हैं । अन्तर यही है कि दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार कालदोष से ये आगम नष्ट हो गये हैं, ४ जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में समय
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१. लेखक देववाचक |
२. लेखक श्रार्यरक्षित ।
३. नन्दीसूत्र ४३ टीका, पृष्ठ ६०-६५ में श्रुत के दो भेद किये हैंअंगबाह्य ( स्थविरकृत ) और अंगप्रविष्ट ( गणधरकृत ) । श्रंगवा के दो भेद हैं: - आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त । आवश्यक के छः, और श्रावश्यकव्यतिरिक्त के दो भेद हैं: - कालिक और उत्कालिक । कालिक को उत्तराध्ययन श्रादि ३१ और उत्कालिक को दशवैकालिक आदि २८ भेदों में विभक्त किया गया है ( इन सूत्रों में अनेक सूत्र उपलब्ध नहीं हैं ) । अंगप्रविष्ट के आचारांग दि १२ भेद हैं, जिन्हें द्वादशांग कहा जाता है ।
कोई आगमों की संख्या ८४ मानते हैं: - ११ अंग, १२ उपांग, ५ सूत्र ( पंचकल्प को घटाकर ), ५ मूलसूत्र ( उत्तरज्झयण, दयालय. श्रावस्सय, नन्दी, अणुयोगदार ), ३० पइण्णा, पक्खियसुत्त, खमणामुत्त, वंदित्तुसुत्त, इसिभासिय, पज्जोसणकप्प ( कल्पसूत्र ), जीयकप्प, जइजीयकप्प, सद्धजीयकप्प, १२ निर्युक्ति, विसेसावस्स भास ।
चरणकरणानुयोग ( कालिकश्रुत ), धर्मानुयोग ( ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन आदि ). गणितानुयोग ( सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि ) तथा द्रव्यानुयोग ( दृष्टिवाद ) के भेद से श्रागम के चार भेद बताये गये हैं ।
श्वेताम्बर स्थानकवासी आगमों की संख्या ३२ मानते हैं ।
४. दिगम्बरों के अनुसार आगमों के दो भेद हैं: - अंग और श्रं बाह्य । अंगों में १२ अंगों के वही नाम हैं जो श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं । दृष्टिवाद के जो पाँच भेद माने गये हैं, उनमें दिगम्बर मान्यता के अनुसार परिकर्भ के चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति, तथा चूलिका के जलगतचूलिका, स्थलगत चूलिका, मायागतचूलिका रूपगतचूलिका, और आकाशगतचूलिका नामक पाँच भेद हैं । अंगबाह्य के निम्नलिखित २४ प्रकीर्णक हैं: - सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, विनय, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पा कल्प, महाकल्प, पुण्डरीक. महापण्डरीक और निषिथिक ।