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________________ पांचवां खण्ड] पहला अध्याय : श्रमण सम्प्रदाय ४११ में तीन शेर मरे पड़े हैं। आचार्य ने उपदेश देते हुए कहा कि जहाँ तक सम्भव हो साधु को अविराधक ही रहना चाहिए, लेकिन कुछ परिस्थितियाँ ऐसी आती हैं जब कि विराधना में भी दोष नहीं माना जाता। किसी राजा के सन्तान नहीं थी। मन्त्रियों ने सलाह दी कि किसी अपर पुरुष से इस तरह बीज-प्रक्षेप किया जाय जिससे लोकापवाद भी न हो और सन्तान भी हो जाये। यह सोचकर जैन श्रमणों को अन्तःपुर में धर्मकथा कहने या अहत् के प्रतिमा-वंदन करने के बहाने बुलाने की योजना बनाई गयी। जब साध, राजभवन में आ गये तो तरुण साधओं को छोड़कर बाकी को वापिस भेज दिया गया । तत्पश्चात् राजपुरुषों ने इन्हें रानियों के साथ भोग भोगने के लिए बाध्य किया। जिन साधुओं ने अपने व्रत का भंग नहीं करना चाहा उन्हें प्राणों से वंचित होना पड़ा। शेष साधुओं ने .आचार्य के पास जाकर सब कुछ सच-सच कह दिया । आचार्य ने प्रायश्चित्त का विधान करते हुए कहा कि यदि मैथुन में राग आदि का सर्वथा अभाव हो तो वह निर्दोष है, और यतनायुक्त साधुओं के लिए केवल अल्प प्रायश्चित बताया गया है।' . इसी प्रकार उपसर्ग आदि अन्य कारणों के उपस्थित होने पर, साध के लिए आदेश है कि वह अपना वेश बदलकर अन्यत्र चला जाये। ऐसी असामान्य परिस्थितियों में उसे भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं रह पाता और बुद्ध प्रतिमा अथवा बुद्ध स्तूप आदि की वन्दना के के लिए बाध्य होना पड़ता है। लेकिन ध्यान रखने की बात है कि इस प्रकार का आचरण अपवाद मार्ग के अन्दर ही आता है, उत्सर्ग अथवा सामान्य मार्ग के अन्दर नहीं। वस्तुतः उपशम को ही श्रमण धर्म का सार बताया है। यदि श्रमण धर्म का आचरण करते हुए किसी के कषायों की उत्कटता होती है तो ईख के पुष्प की भांति उसके व्रत-नियम सब निरर्थक माने गये हैं। १. बृहत्कल्पभाष्य १.२६६४-६८; निशीथचूर्णीपीठिका २८९ की चूर्णी । २. बृहत्कल्पभाष्य ४.४९४७-५४; निशीथभाष्यपीठिका ३६७-८% ६.२२४२-४४ । ३. व्यवहारभाष्य १, पृ० १२२-२३ । ४. बृहत्कल्पसूत्र १.३४; दशवैकालिकनियुक्ति ३०१ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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