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जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज
- जैन प्राचार्यों की परम्परा जैनश्रुत के अन्तिम आचार्य भद्रबाहु के समय चन्द्रगुप्त मौर्य " ( ३२५-३०२ ई० पू०) के काल में मगध में भयंकर दुष्काल पड़ने
की बात जैन आगमों में प्रसिद्ध है। भद्रबाहु के पश्चात् आचार्य स्थूलभद्र हुए। जैन परम्परा के अनुसार, ये नौवें नन्द के प्रधान मंत्री शकटार के पुत्र थे और भद्रबाहु के निकट बैठकर इन्होंने १० पूर्वो का अध्ययन किया था। स्थूलभद्र के समय तक सभी जैन श्रमणों का आहार-विहार एकत्र होता था, अर्थात् सभी श्रमण सांभोगिक थे। तत्पश्चात् आचार्य महागिरि ने जैनसंघ का नेतृत्व किया। आर्य महागिरि
और आर्य सुहस्ति स्थूलभद्र के शिष्य थे; दोनों के गण अलग-अलग थे, फिर भी दोनों प्रीति के कारण एक साथ विहार करते थे। जैन संघ का भार आचार्य सुहस्ति को सौंप आर्य महागिरि दशार्णपुर में तप करने चले गये । आचार्य सुहस्ति और उनके शिष्य राजपिंड ग्रहण करते रहे । आर्य महागिरि ने उन्हें सचेत भी किया; फलतः उन्होंने सुहस्ती के साथ आहार-विहार करना छोड़ दिया, अर्थात् वे असांभोगिक बन गये । आचार्य सुहस्ति ने अशोक के पौत्र अवंतोपति मौर्यवंशी राजा संप्रति (२२०-२११ ई० पू० ) को जैनधर्म में दीक्षित कर जैनसंघ की विशेष प्रभावना की। भगवान महावीर के श्रमणों को प्रायः मगध के आसपास साकेत के पूर्व में अंग-मगध तक, दक्षिण में कौशांबी तक, पश्चिम में स्थूणा तक तथा उत्तर में उत्तर कोसल तक ही विहार करने की अनुज्ञा थी, लेकिन सम्प्रति ने साढ़े २५ देशों को आर्य घोषित कर उन्हें जैन श्रमणों के बिहार के योग्य बना दिया। नगर के चारों
१. मगध (राजगृह ), अङ्ग (चम्पा), वंग ( ताम्रलिप्ति ), कलिंग (कांचनपुर ), काशी (वाराणसी), कोशल ( साकेत ), कुरु (गजपुर), कुशावर्त ( शौरिपुर ), पांचाल ( कांपिल्यपुर ), जांगल ( अहिच्छत्रा ), सौराष्ट्र (द्वारका ), विदेह ( मिथिला ), वत्स ( कौशाम्बी ), शांडिल्य ( नन्दीपुर), मलय ( भद्रिलपुर ), मत्स्य (वैराट), वरणा ( अच्छा ), दशार्ण ( मृत्तिकावती), चेदि (शुक्तिमती ), सिन्धु-सौवीर (वीतिभय ), शूरसेन (मथुरा), भंगि (पापा), वट्टा (मासपुरी ), कुणाल (श्रावस्ती), लाढ (कोटिवर्ष ), केकयी अर्ध (श्वेतिका ); बृहत्कल्पभाष्य १.३२६३ वृत्ति । विशेष के लिए देखिये परिशिष्ट १।