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पहला अध्याय
श्रमण सम्प्रदाय भारतवर्ष आदिकाल से धर्मों का देश रहा है। प्रारम्भ काल से ही धर्म प्राचीन भारतीय जीवन के आदर्श में एक केन्द्रीय भावना रही है।
श्रमण-ब्राह्मण मैगस्थनीज ने भारतीय ऋषियों को ब्राह्मण और श्रमण इन दो भागों में बांटा है; श्रमण जंगलों में रहते थे और वे लोगों को परम श्रद्धा के पात्र थे। जैसे कहा चुका है, समण ( श्रमण ) और माहण (ब्राह्मण) का उल्लेख जैनसूत्रों में बहुत आदर के साथ किया गया है। वस्तुतः प्रजा के भौतिक और आध्यात्मिक जीवन को गढ़ने में श्रमणों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। सामान्य जनता ही नहीं, बल्कि राजे-महाराजे तक उनसे अत्यधिक प्रभावित थे। श्रमण चातुर्मास को छोड़कर वर्ष में लगभग आठ महीने एक जनपद से दूसरे जनपद में विहार (जणवयविहार ) करते हुए धर्म का उपदेश देते फिरते । वे
१. देखिये मैक्रिण्डल, द इन्वेज़न ऑव एलेक्जेण्डर द ग्रेट, पृ० ३५८ । देखिए परमत्थिनी नामक उदान की अटकथा, पृ० ३३८ । अंगुत्तरनिकाय (४, पृ० ३५; १, ३, पृ० २४१) में दो प्रकार के परिव्राजकों का उल्लेख हैअन्मतित्थिय परिबाजक और ब्राह्मण परिब्बाजक, बी० सी० लाहा, हिस्टोरिकल ग्लीनिंग्स, पृ० ९; लाहा, गौतम बुद्ध एण्ड द परिव्राजकाज़, बुद्धिस्ट स्टडीज़, पृ० ८९ आदि; विंटरनज़, जैनाज़ इन इंडियन लिटरेचर, इंडियन कल्चर, जिल्द १, १-४, पृ० १४५ ।
२. आचारांगचूर्णी २, पृ० ६३ में श्रमण, ब्राह्मण और मुनि को एक अर्थ का द्योतक बताया है।
३. जब ईख अपनी बाड़ के बाहर निकलने लगे, तुंबी पर फल लग जायें, बैलों में ताकत आ जाये, गाँवों की कीचड़ सूख जाये, रास्तों का पानी कम हो जाये और राहगीर रास्ता चलने लगें तो जैन भिक्षुओं को समझना चाहिये कि विहार का समय आ गया है, ओघनियुक्ति १७०-७१ ।