SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [ च० खण्ड इच्छानुसार निर्मित श्रेष्ठ विमानों ( वरविमान) में यात्रा किया करते थे | उन्हें प्रायः जैनधर्म के भक्तों के रूप में चित्रित किया गया है । जिन भगवन् की वन्दना के लिए नन्दीश्वर द्वीप अथवा अष्टापद ( कैलाश) पर्वत की यात्रा करते हुए वे दिखायी देते हैं ।" कितने हो विद्याधर श्रमण-दीक्षा ग्रहण करते हुए पाये जाते हैं । विवाह के अवसर पर कुमारी कन्याओं का वे अपहरण कर लेते हैं । वैताव्य पर्वत विद्यारों का मुख्य निवासस्थान बताया है । कितने ही विद्याधर राजाओं का उल्लेख जैन आगम - साहित्य में मिलता है ।" कच्छ और महाकच्छ के पुत्र नमि और विनभि का ऋषभदेव ने अपने पुत्रों की भांति पालन-पोषण किया था। लेकिन जब ऋषभदेव दीक्षा ग्रहण करने को उद्यत हुए और उन्होंने अपने राज्य को अपने पुत्रों में बाँटा तो नमि और विनमि उस समय उपस्थित नहीं थे । बाद में जब वे ऋषभदेव के पास अपना हिस्सा मांगने पहुँचे तो कहते हैं कि धरण ने उन्हें बहुत-सी विद्याएं दीं, जिनमें महारोहिणी, पण्णत्त, गोरी, विज्जुमुही, महाबाला, तिरक्खमणी और बहुरूवा मुख्य थीं । आगे चलकर वैताढ्य के उत्तर और दक्षिण में उन्होंने अनेक नगरों को बसाया । " ३४८ विद्याधर अर्धमानव जाति का राजा होता है; विद्याधरों को मंत्र विद्याओं का ज्ञान होता है, और वे हिमालय पर्वत के वासी होते हैं, होर्नल, रीडिंग्स फ्रॉम द भरहुत स्तूप | धजविहेठ जातक ( ३९१ ), ३, पृ० ४५३ इत्यादि में उन्हें रात्रि के समय प्रेमालाप और मोहनी विद्या का प्रयोग करते हुए, तथा दिन में प्रायश्चित्त स्वरूप सूर्य की धूप में टांग उठाकर तप करते हुए दिखाया है । तथा तुलना कीजिए समुग्ग जातक ( ४३६ ), ३, पृ० १८७ । वायुपुराण ( ६९ ) में मुख्यरूप से विद्याधरों के तीन गण बताये हैं, और इन्हीं से व्योमचारियों के अनेक गणों की उत्पत्ति हुई, भरहुत इंस्क्रिप्शन्स, पृ० ८९ इत्यादि; तथा मार्कण्डेयपुराण, पृ० ४०१-४ । १. उत्तराध्ययनटीका ९, पृ० १३७ अ; १३, पृ० १९३-अ । २. वही ९, पृ० १३८ । ३. वही ९, पृ० १३७ - अ; १३, पृ० ४. देखिए वही, १८, पृ० २४१ - अ १८९ - अ; १८, पृ० २३८ | १८, पृ० २३८, १३, पृ० १९३ - अ; ९, पृ० १३८ १८, पृ० २४७ । ५. कल्पसूत्रटीका, पृ० २०३; वसुदेव हिण्डी, पृ० १६४; तथा पउमचरिय ३, १४४ आदि; ५. १३ आदि; आवश्यकचूर्णी, पृ० १६१ आदि ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy