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च० खण्ड ] छठा अध्याय : रीति रिवाज
३४३ नहीं भूलता था। एक सूत्रपद का श्रवण करके शेष अश्रुत पदों को धारण करने वाला पदानुसारि कहा जाता था। मूल अर्थ को जानकर शेष अर्थों को जाननेवाला बोजबुद्धि कहलाता था। जंघाचारण' मुनि अपने तपोबल से आकाश में गमन कर सकते थे, और विद्याचारण मुनि अपनी विद्या के बल से दूर-दूर तक जा सकते थे। महावीर के शिष्यों को अनेक लब्धियों का धारक बताया गया है। किसी साधु के स्पर्शमात्र से रोग शान्त हो जाता ( आमर्गौषधि ), किसी को विष्ठा और मूत्र औषधि का काम करते (विप्रौषधि ), तथा कोई अपने शरीर के मल (जल्लौषधि) और पसीने आदि से रोगों को दूर कर देता । इसी प्रकार कोई शिष्य अपने शरीर को इच्छानुसार परिवर्तित कर लेता (वैकुर्विक), कोई थोड़े से भिक्षान्न से सैकड़ों का पेट भर सकता (अक्षोणमहानसी) और किसी की वाणी दुग्ध के समान मिठासवाली बन जाती (क्षोरास्रवलब्धि )।
विद्या, मंत्र और योग विद्या, मंत्र और योग को तीन अतिशयों में गिना गया है। तप आदि साधनों से सिद्ध होने वाली को विद्या, और पठन-मात्र से सिद्ध होने वाले को मंत्र कहा है। विद्या प्रज्ञाप्ति आदि स्त्री-देवता से, और मंत्र हरिणेगमेषी आदि पुरुष देवता से अधिष्ठित होते हैं। विद्वेष, वशीकरण, उच्छेदन और रोग शान्त करने के लिए योग का प्रयोग करते थे । योग सिद्धि होने के पश्चात् चरणों पर लेप करने से आकाश में उड़ा जा सकता था। जैनसूत्रों में उल्लेख है कि आर्यवन पादो. पलेप द्वारा में गमन करते थे और पयूषण पर्व के अवसर पर पुष्प लाने के लिए वे पुरीय से माहेश्वरी गये थे। जैनसंघ के उद्धारक मुनि विष्णुकुमार ने गंगामंदिर पर्वत से गजपुर के लिए आकाश मार्ग से
१. हेमचन्द्र, योगशास्त्र १०.२; १२.२ । गौतम गणधर को यह लब्धि प्राप्त थी, उत्तराध्ययनटीका १०, पृ० १५४-अ ।
२. औपपातिकसूत्र १५, पृ० ५२; गच्छाचारवृत्ति ७१-अ-७५, प्रज्ञापनासूत्रटीका २१, पृ० ४२४ आदि; आवश्यकचूर्णी पृ० ६८, ७०-१; ३९५ आदि; प्रवचनसारोद्धार, पृ० १६८ ।
३. बृहत्कल्पभाष्य १.१२३५; निशीथचूर्णी ११.३७१३; ज्ञातृधर्मटीका १, पृ० ७ । तुलना कीजिए दधिवाहन जातक (१८६) २, पृ० २६४ ।
. आवश्यकचूर्णी, पृ० ३९६ ।