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________________ च० खण्ड] पांचवाँ अध्याय : कला और विज्ञान जानकर हाथ से उठाने का प्रयत्न किया, और इस प्रयत्न में उसके नख क्षत हो गये ।' राजा दुर्मुख ने बढ़इयों (थवइ) को बुलवाकर चित्रसभा का कार्य आरम्भ किया । तथा उच्च शिखरवाली चित्रसभा तैयार हो जाने पर, शुभ मुहूर्त देखकर उसमें प्रवेश किया। (७) मूर्तिकला मूर्तिकला प्राचीन भारत में बहुत समय से चली आती है। भारत के शिल्पकार तराशने के लिए काष्ठ का उपयोग करते थे । काष्ठकम का उल्लेख ऊपर आ चुका है। काष्ठ की पुतलियां बनायी जाती थीं। स्कन्द और मुकुन्द आदि की प्रतिमाएँ भी काष्ठ से बनतो थीं इसलिये देवकुल में जलनेवाले दीपक से उनमें आग लग जाने की सम्भावना रहती थी। व्यवहारभाष्य में वारत्तक ऋषि का उल्लेख है; उसके पुत्र अपने पिता की रजोहरण और मुखवस्त्रिका वाली काष्ठमयी मूर्ति बनाकर उसकी पूजा किया करते थे। इसके अतिरिक्त, पुस्त (पलस्तर आदि का लेप), दन्त, शैल (पाषाण) और मणि आदि से भी प्रतिमाएँ तैयार होती थी। वणकुट्टग लोग काष्ठ से प्रतिमा बनाते थे। विदेह की राजकुमारी मल्ली की सुवर्णमय प्रतिमा का उल्लेख मिलता है । यह एक मणिपीठिका के ऊपर स्थापित की गयी थी, तथा १. उत्तराध्ययनटीका ९, पृ० १४१-अ। २. वही ९, पृ० १३५ । धनपाल ने तिलकमञ्जरी में तीन प्रकार की चित्रशालाओं का उल्लेख किया है, देखिए सी० सिवराममूर्ति का आर्ट नोट्स फ्रॉम धनपाल्स तिलकमञ्जरी, इण्डियन कल्चर, जिल्द २, पृ० १९९-२१० तथा कल्चरल हैरिटेज ऑव इण्डिया, जिल्द ३, पृ० ५५५ आदि; उपर्युक्त लेखक का इण्डियन पेण्टर एण्ड हिज़ आर्ट नामक लेख । ३. मूर्तिकला के विशिष्ट लक्षणों के लिए देखिए गोपीनाथ, द ऐलीमेंट्स ऑव हिन्दू इकोनोग्राफी, पृ० ३३-३७; ओ० सी० गंगोली, इण्डियन स्कल्प्चर, द कल्चरल हैरिटेज ऑव इण्डिया जिल्द ३, पृ० ५३६-५५४ । ४. बृहत्कल्पभाष्य २.३४६५। ५. २.११ । आवश्यकचूर्णी २, पृ० २०० के अनुसार वारत्तक ऋषि की मूर्ति चौराहे पर स्थित किसी यक्षगृह में स्थापित थी। तीर्थकरों की प्रतिमाओं के लिये देखिये आवश्यकचूर्णी पृ० २२५ । ६. बृहत्कल्पभाष्य १.२४६९। ७. निशीथचूर्णी १०.३१८२, पृ० १४२ ।।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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