SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज सामने गोशाल ने अपने आपको जिन घोषित किया । उन दिनों महावीर भी श्रावस्ती में विहार कर रहे थे। उन्होंने गोशाल के जिन होने का विरोध किया और उसे जिनापलापी बताया। यह सुनकर गोशाल को बहुत क्रोध आया । उसने महावीर के शिष्य आनन्द को बुलाकर धमकी दी कि वह उसके गुरु को अपने तेजोबल से नष्ट कर देगा । जब यह समाचार आनन्द ने महावीर को सुनाया तो महावीर ने उत्तर दिया कि अवश्य ही गोशाल अत्यन्त तेजस्वी है और उसमें इतनी शक्ति विद्यमान है कि वह अपने तेजोबल से अंग, बंग, मगध, मलय, मालव, वत्स, लाढ़, काशी, कोशल आदि १६ जनपदों को भस्म कर सकता है, किन्तु उसका ( महावीर का) वह कुछ नहीं बिगाड़ सकता। उधर महावीर का कोई उत्तर न पा गोशाल स्वयं कोष्ठक चैत्य की ओर चला जहाँ महावीर ठहरे हुए थे। उन्हें सम्बोधित कर वह कहने लगा-“हे काश्यप ! तू मुझे अपना शिष्य कहता है, परन्तु तेरा शिष्य मंखलिपुत्र गोशाल कभी का मर चुका है, मैं तो कौडिन्यायनगोत्रीय उदायो हूँ।" महावीर ने उत्तर दिया-"गोशाल ! यह तेरा मिथ्या अपलाप है।" यह सुनते ही गोशाल आग-बबूला हो गया। अपनी तेजोलेश्या से उसने महावीर के ऊपर प्रहार किया, और कहने लगा-"जा, तू मेरे तेज से अभिभूत हो, पित्त ज्वर से पीड़ित होकर, छः मास के भीतर मृत्यु को प्राप्त होगा ।” महावीर ने चुनौती स्वीकार करते हुए उत्तर दिया-“तू मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, मैं अभी १६ वर्ष और जीवित रहूँगा, किन्तु तेरा अवश्य हो सात दिन में प्राणान्त हो जायेगा।” ... महावीर को भविष्यवाणी सच उतरी। गोशाल का अन्तिम समय आ पहुँचा । अपने स्थविरों को बुलाकर उसने आदेश दिया-"हे स्थविरो ! मेरे भरने के पश्चात् तुम लोग सुगंधित जल से मुझे स्नान कराकर, गोशीर्ष चन्दन का मेरे शरीर पर लेप कर, बहुमूल्य वस्त्रालङ्कारों से मुझे विभूषित कर, शिविका में लिटा, श्रावस्ती में घुमाते हुए भूताः' अर्थात् पतित हुए महावीर के शिष्य किया है। चूर्णीकार ने इन्हें 'पासावञ्चिज्ज' अर्थात् पार्श्वनाथ के शिष्य कहा है। यहाँ यदि पार्श्वस्थ निर्ग्रन्यों को 'पासावच्चिज्ज कहा है तो गोशाल के उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध होने की सूचना मिलती है।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy