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३२२ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [च० खण्ड मृदंग, नंदीमृदंग,' आलिंग, कुस्तुंब, गोमुखी, मर्दल, वीणा, विपंची (त्रितंत्री वीणा ), वल्लको (सामान्य वीणा,), महती (शततंत्रिका वीणा ), कच्छभी, चित्रवीणा, बद्धीसा, सुघोषा, नंदीघोषा, भ्रामरी, षड्भ्रामरी, परवादनी ( सप्ततंत्री वीणा), तूणा, तुंबवीणा, आमोद, झंझा, नकुल, मुकुंद, हुडुक्की, विचिक्की, करटा, डिंडिम, किणित, कडंब, ददरिका ( गोहिया भी), दर्दरक, कलशो, मडुक, तल, ताल, कांस्यताल, रिंगिसिया, लत्तिया, मगरिका, सुसुमारिया, वंश, वेणु, वाली, परिल्ली और बद्धगा।
गेय, नाट्य और अभिनय वाद्यों की भांति गेय, नाट्य और अभिनय का भी संगीत और नाट्यशास्त्र में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। गेय के चार प्रकार बताये हैं :-उक्खित्त ( उत्क्षिप्त ), पत्तय (पादात्त), मंदय (मंदक ) और रोविंदय अथवा रोइयावसाण (रोचितावसान)।
१. एकतः संकीर्ण अन्यत्र विस्तृतो मुरजविशेषः, व्याख्याप्रज्ञप्ति २, पृ० २७१, बेचरदास संस्करण ।
२. चावनद्धपुटो वाद्यविशेषः।
३. सूत्र ६४ । बृहत्कल्पभाष्यपीठिका २४ वृत्ति में बारह वाद्यों का उल्लेख है:-भंभा, मुकुन्द, मद्दल, कडंब, झल्लरि, हुडुक्क, कांस्यताल, काहल, तलिमा, वंश, पणव, और शंख । तथा देखिए व्याख्याप्रज्ञप्तिटीका ५.४ पृ० २१६ अ; जीवाभिगम ३, पृ० १४५-अ; जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति २, पृ० १००-अ आदि; अनुयोगद्वारसूत्र १२७; निशीयसूत्र १७.१३५-१३८ । निशीथसूत्र में डमरुग, ढंकुण आदि वाद्यों की अतिरिक्त संख्या गिनायी गयी है। यहां अनेक नाम अशुद्ध जान पड़ते हैं। आचारांग (२,११.३९१ पृ० ३७९) में किरिकिरिया ( बांस आदि की लकड़ी से बना वाद्य ), और सूत्रकृतांग ( ४.२.७ ) में कुक्कयय और वेणुपलासिय ( दांतों में बायें हाथ से पकड़कर, वीणा की भांति दाहिने हाथ से बजायी जानेवाली बांसुरी) नामक बांसुरियों का उल्लेख है। तथा देखिए संगीतरत्नाकर, अध्याय; ६; रामायण ५.१०.३८ आदि में मडडुक, पटह, वंश, विपंची, मृदङ्ग, पणव, डिंडिम, आडम्बर और कलशी का उल्लेख है; महाभारत ७.८२.४।
४. उत्क्षिप्तं-प्रथमतः आरभ्यमाणं । पादात्तं-पादवृद्धं वृत्तादि चतुर्भागरूपपादबद्धं इति भावः। मंदाय-मध्यभागे मूर्छनादि गुणोपेततया मंद मंदं घोलनात्मकं । रोचितावसान-रोचितं यथोचितलक्षणोपेततया भावितं सत्यापितं इति यावत् अवसानं यस्य तत्तथा, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका, ५, पृ० ४१३-अ ।